स्वामी बालानन्द
स्वामी बालानन्द एक प्रतापी बैरागी संत योद्धा थे[1] इन्हें तीनों बैरागी अणि अखाड़ों का संस्थापक माना जाता है स्वामी बालानन्द पाँच राज्यों के राजगुरु भी थे जिनमें जयपुर, अलवर, उदयपुर, जोधपुर राज्य प्रमुख थे [2]
इतिहास
[संपादित करें]रामानन्दी सम्प्रदाय के महान संत बालानन्द ने धर्म और ढूंढाड़ को बचाने के लिए वैरागी वैष्णव संतों के लड़ाकू अखाड़ों का गठन किया था। चांदपोल हनुमानजी के पास बालानन्दजी का रास्ता में ऊंचाई पर बने मंदिरनुमा मठ कभी बैरागी सेना की छावनी रहा था। यहां सैनिकों के अलावा हाथी व घोड़े भी रहते थे। राजपूत जाति के संत बालानन्द के गुरु व्रजानन्द के साथ पुष्कर होते हुए आमेर रियासत में आए । इनका पहला पड़ाव झालाना इलाके में रहा। जयपुर बसने के बाद इनको मंदिर का पट्टा दिया गया। सवाई माधोसिंह प्रथम बालानन्द को राजगुरु का सम्मान दिया।
शस्त्रधारी बैरागी संतों की ५२ गद्दियां व तीन अनी अखाड़ों का गठन संत बालानन्द के नेतृत्व में सन् १७२९ में वृंदावन में किया गया। इस काम में गलता के हर्याचार्य, निम्बार्क के वृंदावनदेवाचार्य, दादूपंथी मंगलदास व रेवासा आदि पीठों के वैष्णव अखाड़ा साथ रहे। १७८९ के नासिक कुंभ में संतों को बचाने के लिए हुए युद्ध में संत बालानन्द की सेना ने वीरता दिखाई। औरंगजेब ने मूर्तियों को खंडित करने का अभियान चलाया तब नागा संतों के सहयोग से वृंदावन आदि से भगवान की मूर्तियों को राजस्थान में भेजा गया।
भरतपुर के महाराज सूरजमल ने संत बालानंद के सहयोग से आगरा किले पर भी कब्जा कर लिया और वहां से किवाड़ भी उतार लाए। अयोध्या राम जन्म भूमि को लेकर हुए युद्ध में संत बालानन्द ने गुरुभाई संत मानदास के साथ वीरता दिखाई। सवाई प्रतापसिंह व महादजी सिंधिया के बीच हुए तूंगा युद्ध में बैरागी सेना ने दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए। मेवाड़ की कृष्णा कुमारी के मामले में जयपुर व मारवाड़ के बीच १४ मार्च १८०७ को हुए गिगोली युद्ध में गंभीरानंद की अगुवाई में संतों की सेना ने भाग लिया।
बरसाना के जाट मुगल युद्ध में बैैैरागी सेना ने जाटों के पक्ष में युद्ध लड़ा। इसमें पांच हजार सैनिक घायल हुए और करीब दो हजार मारे गए। संत बालानंद के जयपुर से जाने पर महाराजा उन्हें विदा करने और वापस आने पर अगवानी करने पहुंचते थे। रेलवे स्टेशन के पास बड़ौदिया गांव के अलावा तेवड़ी, कारवा आदि इनकी जागीर में रहे। वृंदावन, गोवर्धन, भरतपुर व लोहागढ़ आदि में संत बालानंद के मंदिर व बाग थे। इतिहासकार आनन्द शर्मा के मुताबिक महाराजाओं ने संत बालानन्द व गद्दी के महंतों को सम्मान दिया।
मठ की छावनी में सेना के लिए गेहूं भी बैलों की चक्की से पिसता था। मठ में राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के साथ सीता, उर्मिला, मांडवी व श्रुतिकीर्ति की भी पूजा होती है। अष्ट दिग्गज गद्दी के वेंकटेश, रंगनाथ, श्रीतोताद्रिनाथ, श्री वरदराज के अलावा शठकोप चरण पादुकाओं पूजा होती है। विजय राघव व धनुर्धारी हनुमान को युद्ध में आगे रखा जाता। जेठ सुदी पंचमी को संत बालानन्द की जयंती पर नागा साधु अपने कमांडर को आज भी ढोक देने आते हैं। अजबगढ़ युद्ध में गोविंदानन्द ने जयपुर की तरफ से युद्ध लड़ा। गोविंदानंद के बाद गंभीरानंद मठ के महंत बने।
शस्त्र सुविधा सबहिं पढ़ाई। बाधेऊ सात अखाड़े भाई।
स्वामी बालानन्द कृपाला। राखेउ तिलक लठो जस भाला।।
आजादी के बाद बैरागी साधुओं ने अपने यौद्धा स्वरूप को त्याग दिया और केवल मात्र आध्यात्म की राह पकड़ ली। वर्तमान में बालानन्द मठ के महन्त श्री श्री 1008 अनुभवनन्दि पीठाधीश्वर श्री लक्ष्मणानंदाचार्य जी है जो जयपुर राजघराने के राजगुरु भी है।[4][5]
स्वामी जी ने १८वीं शताब्दी में पटना के प्रसिद्ध महावीर मंदिर की स्थापना की थी।[6]
संगठन
[संपादित करें]श्री रामानंद के समय तक हिन्दुओं की सामाजिक स्थिति बहुत गिर चुकी थी। मूर्तियों का खण्डन करना, विश्वासों का हनन करना विधर्मियों के कृत्य थे। कहा जाता है कि सिकन्दर लोदी (सन् 1489-1517 ई.) के समय तक हिन्दुओं पर अत्याचार करने का एक आन्दोलन ही चल पड़ा था और यह क्रम बढ़ता ही जा रहा था। यहाँ तक कहा जाता है कि सन् 1398 में तैमूर ने हरिद्वार में बहुत अधिक संख्या में बैरागियों को मरवा डाला था। ऐसी स्थिति में श्री बालानन्द का उदय हुआ जो कि आचार्य व्रजानन्द के शिष्य थे। इन्होंने सन् 1672 में चतुः सम्प्रदाय एवं सम्बन्धित अखाड़ों को संगठित किया। इतिहासकार यह मानते हैं कि वैष्णव बैरागियों के अखाड़े का संगठन 1650-1700 के बीच हुआ है। इस स्थान का एक कारण यह भी था कि वैष्णवों के चार वर्गों में विभाजन और मतभेद था जिसका लाभ लेकर शैव सम्प्रदाय के साधु-महात्मा बैरागियों को तंग किया करते थे। श्री बालानन्द ने पारस्परिक भेदभाव की उपेक्षा कर उन्हें एकसूत्र में बांधने के लिए ही अखाड़ों की प्रथा चलाई थी ताकि संगठित होकर वे प्रति पक्षियों से अपनी रक्षा के साथ ही तीर्थों की प्रतिष्ठा बचाने में भी समर्थ हो सकें।[7]
परिभाषा
[संपादित करें]बैरागियों के साम्प्रदायिक साहित्य में अखाड़े की व्याख्या निम्न रूप से की गई है-
नाहमादिरखंडो यत्र स अखंड उदाहतः।
चतुर्णा सम्प्रदायों अखाड़ा सप्त वै मताः।।
अखंड संज्ञा संकेतः कृतो धर्म विवृद्धे।
बालानन्द प्रभृति भिः सम्प्रदाय नुसारिभिः।।
सर्वेक्षण के अवसर पर यह भी ज्ञात हुआ कि अखाड़ों की अपनी शब्दावली है। रामदल के अनुयायी अखाड़ों को गाँव कहते हैं! डॉ गंगादासजी ने जानकारी दी कि भारत में अखाड़ों की प्रमुख बैठक हैं - अयोध्या, वृन्दावन, चित्रकूट, नासिक एवं जगन्नाथ पुरी।
रामजन्मभूमि में योगदान
[संपादित करें]हिन्दू धर्म की रक्षार्थ वैष्णव बैरागी संतों के अखाड़े कायम करने वाले जयपुर के स्वामी बालानन्द ने अयोध्या स्थित रामजन्म भूमि की सुरक्षा के लिए सैनिक छावनी बनाई थी। बालानंद के गुरुभाई मानदास और शिष्य गोविंदानंद ने अयोध्या में रामकोट के पास श्रीराम के जन्म स्थान पर निर्मोही अखाड़ा स्थापित कर 13 साल तक सुरक्षा की। जयपुर के बालानंद मठ से जुड़े देवेन्द्र भगत के मुताबिक सन् 1725 से सन् 1738 तक बालानंद के निर्देश पर अयोध्या में बनी छावनी में संतों ने जन्मभूमि की देखभाल और सुरक्षा का जिम्मा संभाला। स्वामी बालानंद के निर्देश पर सवाई जयसिंह ने आमेर व जयपुर के संयुक्त राज्य की तरफ से छावनी का सारा खर्चा भी उठाया। सन् 1732 के हरिद्वार कुंभ में बालानंद व उनके गुरु स्वामी ब्रजानंद ने वैष्णवों को मारने वाले शस्त्रधारी उपद्रवियों से मुकाबला कर परास्त किया। इस युद्ध में संत द्वंदाराम ने अच्छी वीरता दिखाई। सन् 1789 के नासिक कुंभ मेले में बालानन्द के अखाड़ों ने शैवों से मुकाबला किया। सन् 1698 एवं सन् 1700 में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध बालानंद की सेना ने युद्ध लड़ा। इसके अलावा मिर्जा नजफ खां और पाटन युद्ध में विजय हासिल की। सन् 1859 में सवाई रामसिंह द्वितीय के समय में जयपुर रियासत में शैव-वैष्णव विवाद बढ़ गया, तब बालानंद मठ के आचार्य ज्ञानानंद ने गलता के सीतारामाचार्य, रेवासा के रामानुजाचार्य को साथ लेकर वैष्णवों को शैव बनाने का विरोध किया। ज्ञानानंदजी ने सवाई रामसिंह को समझाकर विवाद खत्म कराया।बालानंदजी की गद्दी पर गोविंदानन्द बैठे। उनके बाद गंभीरानन्द, मेवानन्द रामानन्द, ज्ञानानंद आदि गादीपति बने। बालानंद जी का मठ रामानंदी बैरागियों की शाखा है। सवाईजयसिंह ने बड़ौदिया गांव की जागीर स्वामी बालानंद मठ को दी थी।[9]
सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ https:///amp/s/www.newspuran.com/vaishnav-arena/amp/
- ↑ https:///amp/s/m.patrika.com/amp-news/religion-and-spirituality/stories-of-naga-sadhu-who-gave-sacrifice-to-save-hindu-religion-2209287/
- ↑ https://www.newspuran.com/vaishnav-arena/
- ↑ Misra, Nityananda (2019-02-18). Kumbha: The Traditionally Modern Mela (अंग्रेज़ी में). Bloomsbury Publishing. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-88414-12-8.
- ↑ "औरंगजेब से सनातन धर्म को बचाने के लिए संतों ने बनाई थी फौज, दी थी खुद की बलि, पढ़े पूरी कहानी". Patrika News (hindi में). अभिगमन तिथि 2021-06-20.सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
- ↑ "महावीर मंदिर, पटना का इतिहास | History of the Mahavir Mandir, Patna". mahavirmandirpatna.org (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2021-06-20.
- ↑ "वैष्णव अखाड़े: क्यों 18वी शताब्दी में वैष्णव सम्प्रदायों को अनेक संकटों का सामना करना पड़ा?". News Puran. 2020-09-30. अभिगमन तिथि 2021-06-20.
- ↑ https://www.newspuran.com/vaishnav-arena/
- ↑ Chaturvedi, Heramb (2019-04-01). Kumbh : Aitihasik Vangmaya. Vani Prakashan. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-88684-83-5.