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सुश्रुत संहिता

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सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद एवं शल्यचिकित्सा का प्राचीन संस्कृत(भारतीय) ग्रन्थ है। सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के तीन मूलभूत ग्रन्थों में से एक है। आठवीं शताब्दी में इस ग्रन्थ का अरबी भाषा में 'किताब-ए-सुस्रुद' नाम से अनुवाद हुआ था।

सुश्रुतसंहिता बृहद्त्रयी का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है (वृहत्त्रयी = चरकसंहिता सुश्रुतसंहिता अष्टाङ्गहृदयम्) । यह संहिता आयुर्वेद साहित्य में शल्यतन्त्र की वृहद साहित्य मानी जाती है। धन्वन्तरि द्वारा उपदिष्ट एवं उनके शिष्य सुश्रुत द्वारा प्रणीत ग्रन्थ आयुर्वेदजगत में 'सुश्रुतसंहिता' के नाम से विख्यात हुआ। कालक्रम में ५वीं शताब्दी में नागार्जुन द्वारा इस संहिता में उत्तरतन्त्र जोड़ने के साथ-साथ सम्पूर्ण संहिता का प्रतिसंस्कार भी किया गया। इसके बाद १०वीं सदी में तीसटपुत्र चन्द्रट ने जेज्जट की व्याख्या के आधार पर इसकी पाठशुद्धि की। उनका यह योगदान भी प्रतिसंस्कार जैसा ही था। इसके रचयिता सुश्रुत हैं जो छठी शताब्दी ईसापूर्व काशी में जन्मे थे।

यद्यपि वर्तमानकाल में उपलब्ध सुश्रुतसंहिता में अष्टाङ्ग आयुर्वेद का पर्याप्त वर्णन मिलता है तथापि शल्यचिकित्सा को आधार मानकर निर्मित होने के कारण इसे शल्यचिकित्सा के प्राचीनतम एवं आकर ग्रन्थ के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है। आधुनिक शल्यचिकित्सक भी सुश्रुत को शल्यचिकित्सा का जनक मानते हैं।

सुश्रुतसंहिता मूलतः ५ स्थानों और १२० अध्यायों (सूत्रस्थान-४६, निदानस्थान-१६, शारीरस्थान-१०, चिकित्सास्थान-४० एवं कल्पस्थान-८ अध्यायों) में विभाजित है। नागार्जुनकृत उत्तरतन्त्र के ६६ अध्यायों को भी इसमें जोड़ देने पर वर्तमान में इस संहिता में कुल १८६ अध्याय मिलते हैं। इसमें ११२० रोगों, ७०० औषधीय पौधों, खनिज-स्रोतों पर आधारित ६४ प्रक्रियाओं, जन्तु-स्रोतों पर आधारित ५७ प्रक्रियाओं, तथा आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का उल्लेख है।

इस संहिता के सूत्रस्थान में आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्त जैसे दोष-धातु-मल, ऋतुचर्या, हिताहित, अरिष्ट, रस-गुण-वीर्य-विपाक, आहार, औषध-द्रव्य, वमन-विरेचन आदि के साथ-साथ शल्यचिकित्सा के मूलभूत सिद्धान्तों यथा अष्टविध शल्यकर्म, यन्त्र, शस्त्रानुशस्त्र, क्षारकर्म, अग्निकर्म, जलौकावचारण, कर्णव्यध, कर्णबन्ध, आम और पक्व व्रण, व्रणालेपन, व्रणबन्ध, षट् क्रियाकाल, शल्यापनयन आदि का भी अतुलनीय वर्णन मिलता है। तदुपरान्त निदानस्थान में शल्यशास्त्र के कतिपय प्रमुख रोगों का निदानपञ्चकात्मक वर्णन एवं शारीरस्थान में दार्शनिक विषयों, कौमारभृत्य के मौलिक सिद्धान्तों, मानव शरीरक्रिया और शरीररचना का वर्णन है। इसी स्थान में मर्मशारीर की अवस्थिति सुश्रुत के शारीर विषयक ज्ञान का उत्कृष्टतम स्वरूप है, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए भी यह कुतुहल का विषय है। अधुना इस विषय पर पुनः अनुसन्धान अपेक्षित है। आयुर्वेदीय साहित्य में शरीररचना (एनाटॉमी) का जितना विशद विवेचन सुश्रुतसंहिता में मिलता है, उतना किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं है। इसी कारण आयुर्वेदवाङ्मय में 'शारीरे सुश्रुतः श्रेष्ठः' (शरीररचना की व्याख्या में सुश्रुत श्रेष्ठ हैं) उक्ति प्रसिद्ध है।

चिकित्सास्थान में शल्यतन्त्रोक्त रोगों की चिकित्सा के साथ-साथ, वाजीकरण, रसायन एवं पञ्चकर्म आदि चिकित्सा विधाओं का वर्णन तथा कल्पस्थान में अगदतन्त्र का विस्तृत वर्णन है। उत्तरतन्त्र में शालाक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, कायचिकित्सा, भूतविद्या, स्वस्थवृत्त, तन्त्रयुक्ति, रस और दोष विषयक मौलिक सिद्धान्तों का वर्णन है। संक्षेप में सुश्रुतसंहिता में न केवल शल्यतन्त्र अपितु आयुर्वेद के अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का विशद विश्लेषण किया गया है जिसके परिणामस्वरूप सुश्रुतसंहिता को बृहत्त्रयी में समादृत स्थान प्राप्त है।

सुश्रुत संहिता दो खण्डों में विभक्त है : पूर्वतन्त्र तथा उत्तरतन्त्र

पूर्वतन्त्र : पूर्वतन्त्र के पाँच भाग हैं- सूत्रस्थान, निदानस्थान, शारीरस्थान, कल्पस्थान तथा चिकित्सास्थान। इसमें १२० अध्याय हैं [1]जिनमें आयुर्वेद के प्रथम चार अंगों (शल्यतंत्र, अगदतंत्र, रसायनतन्त्र, वाजीकरण) का विस्तृत विवेचन है। (चरकसंहिता और अष्टांगहृदय ग्रंथों में भी १२० अध्याय ही हैं।)

उत्तरतन्त्र : इस तन्त्र में 66 अध्याय हैं जिनमें आयुर्वेद के शेष चार अंगों (शालाक्य, कौमार्यभृत्य, कायचिकित्सा तथा भूतविद्या) का विस्तृत विवेचन है। इस तंत्र को 'औपद्रविक' भी कहते हैं क्योंकि इसमें शल्यक्रिया से होने वाले 'उपद्रवों' के साथ ही ज्वर, पेचिस, हिचकी, खांसी, कृमिरोग, पाण्डु (पीलिया), कमला आदि का वर्णन है। उत्तरतंत्र का एक भाग 'शालाक्यतंत्र' है जिसमें आँख, कान, नाक एवं सिर के रोगों का वर्णन है।

इस तरह सुश्रुत संहिता के दोनो भागों में छः स्थान तथा 186 अध्याय है।

सूत्रस्थान

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सूत्र स्थान में ४६ अध्याय हैं।

सूत्रस्थान के योगसूत्रीय अध्याय में अस्त्र-शस्त्र, यंत्र-उपयंत्र संबंधित संपूर्ण जानकारी वर्णित है। आचार्य सुश्रुत ने अपने इस स्थान में सौ से अधिक शल्य शस्त्रों का वर्णन किया है जैसे-

1. शस्त्रों के मूठ एवं जोड़ मजबूत होने चाहिए।

2. वे चमकीले और तीक्ष्ण होने चाहिए।

3. शस्त्रों को साफ उबालकर, कोमल वस्त्रों में लपेटकर, सन्दूक (बक्सा) में बन्द करके रखना चाहिए।

4. अस्थि टूट जाने पर जोड़ने के लिए बांस की पट्टियों का प्रयोग करना चाहिए। अस्थियों को ठीक बिठाने के लिए बाहर से मालिश का विधान बताया है।

5. व्रणों के अनेक प्रकार एवं अलग-अलग उपचार-पद्धति का वर्णन।

7. सिर एवं चेहरे पर कट-फट जाने पर बंध (टाका) लगाने का वर्णन।

8. जख्मों में लोहकण या लोहखण्ड धुस जाने से चुम्बक के प्रयोग से बाहर निकालना।

9. सूजन वाले जगह पर लेप का प्रयोग।

10. कच्चे व्रणों को पकाने के लिए पुल्टिस बांधना, सेकाई करना, रक्त निकालने या चीरा लगाने का विधान है।

11. जलोदर (पेट में पानी जमा होना) और वृषण वृद्धि (अण्डकोष में पानी भरना) में छेदन कर जल निकालने का विधान।

12. मूत्राशय में बनने वाल पथरी रोग में शल्य क्रिया का वर्णन है। इसी तरह पंचकर्म में रक्त मोक्षण (रोग के स्थान को लोह गरम करके दागना या ऑकना), त्रिदोष सिद्धान्त का सरल वर्णन है।

३४वें अध्याय में परिचर (nurse) के गुणों का वर्णन है-

स्निग्धोऽजुगुप्सुर्बलवान् युक्तो व्याधितरक्षणे
वैद्यवाक्यकृदश्रान्तः पादः परिचरः स्मृतः ॥२४
(अर्थ : स्निग्ध (cool-headed), अजुगुप्सु (pleasant), बलवान, रोगी की रक्षा करने में लगा रहने वाला, तथा वैद्य की बात को पूर्णतः पालन करने वाला ही (अच्छा) परिचर होता है।)

निदानस्थान

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इस स्थान में १६ (सोलह) अध्याय हैं जिसमें शल्यप्रधान रोगों (आपरेशन से ठीक होने वाले) जैसे अर्श (बवासिर), भगन्दर (गुदा के पास होने वाला घाव), अश्मरी (मूत्राशय, एवं पित्ताशय की पथरी), मुढ़गर्भ (माँ के गर्भ में ही बच्चे की मृत्यु), गुल्म (ट्यूमर) आदि रोगों का निदान लक्षण एवं सम्पूर्ण चिकित्सा का वर्णन है।

शारीरस्थान

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इस स्थान में १० अध्याय है जिसमें शरीर की परिभाषा, सम्पूर्ण गर्भ का वर्णन, पुरूष या सृष्टि का उत्पतिक्रम का विस्तृत वर्णन है। शरीर के अंग-प्रत्यंग एवं सभी अवयव जैसे- अस्थि संख्या, मांस पेशी, स्नायु, कण्डरा, शिरा, धमनी, हृदय, फेफड़े आदि अंगों का वर्णन है।

त्वक्पर्यन्तस्य देहस्य योऽयमङ्गविनिश्चयः
शल्यज्ञानादृते नैष वर्ण्यतेऽङ्गेषु केषुचित् ॥४६
तस्मान्निःसंशयं ज्ञानं हर्त्रा शल्यस्य वाञ्छता
शोधयित्वा मृतं सम्यग्द्रष्टव्योऽङ्गविनिश्चयः ॥४७
प्रत्यक्षतो हि यद्दृष्टं शास्त्रदृष्टं च यद्भवेत्
समासतस्तदुभयं भूयो ज्ञानविवर्द्धनम् ॥४८
( अर्थ : The different parts or members of the body as mentioned before including even the skin cannot be correctly described by any one who is not versed in Anatomy. (46 ) Hence, any one desirous of acquiring a thorough knowledge of anatomy should prepare a dead body and carefully observe (by dissecting it) and examine its different parts. (47) For a thorough knowledge can only be acquired by comparing the accounts given in the Shastras (books on the subject) by direct personal observation. (48))

चिकित्सास्थान

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इसमें ४० अध्याय हैं जिसमें समस्त शरीरगत रोगों की शल्यचिकित्सा एवं औषधि चिकित्सा का वर्णन है।

कल्पस्थान

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कल्प स्थान में ८ अध्याय हैं। इस सम्पूर्ण भाग में स्थावर एवं जांगम विषों के लक्षण, उनकी पहचान, विषों का औषधि प्रयोग एवं विषों से बाधित व्यक्ति का चिकित्सा कर्म का विस्तृत वर्णन है।

उत्तरस्थान

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उत्तर स्थान में ६६ अध्याय हैं जिसमें नेत्र रोग, शिरोरोग, कर्ण रोग आदि उर्ध्व शरीर (शिर में सभी भाग) गत रोगों की शल्य एवं औषधि चिकित्सा का वर्णन है।

शल्यक्रियाएँ

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सुश्रुतसंहिता में आठ प्रकार शल्ययोग्य रोग/विकार वर्णित हैं:

  • (१) छेद्य (छेदन हेतु)
  • (२) भेद्य (भेदन हेतु)
  • (३) लेख्य (अलग करने हेतु)
  • (४) वेध्य (शरीर में हानिकारक द्रव्य निकालने के लिए)
  • (५) ऐष्य (नाड़ी में घाव ढूंढने के लिए)
  • (६) अहार्य (हानिकारक उत्पत्तियों को निकालने के लिए)
  • (७) विस्रव्य (द्रव निकालने के लिए)
  • (८) सीव्य (घाव सिलने के लिए)

इनके लिए क्रमशः ८ शस्त्रकर्म हैं जिनके नाम हैं- छेदन, भेदन, लेखन, वेधन, ऐषण, आहरण, विस्रवण, और सीवन। इसे "अष्टविध शस्त्रकर्म' कहा गया है।

सुश्रुत संहिता में शल्य क्रियाओं के लिए आवश्यक यंत्रों (साधनों) तथा शस्त्रों (उपकरणों) का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। इस महान ग्रन्थ में २४ प्रकार के स्वास्तिकों, २ प्रकार के संदंस (), २८ प्रकार की शलाकाओं तथा २० प्रकार की नाड़ियों (नलिका) का उल्लेख हुआ है। इनके अतिरिक्त शरीर के प्रत्येक अंग की शस्त्र-क्रिया के लिए बीस प्रकार के शस्त्रों (उपकरणों) का भी वर्णन किया गया है। ऊपर जिन आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का संदर्भ आया है, वे विभिन्न साधनों व उपकरणों से की जाती थीं। उपकरणों (शस्त्रों) के नाम इस प्रकार हैं-

अर्द्धआधार, अतिमुख, अरा, बदिशा, दंत शंकु, एषणी, कर-पत्र, कृतारिका, कुथारिका, कुश-पात्र, मण्डलाग्र, मुद्रिका, नख शस्त्र, शरारिमुख, सूचि, त्रिकुर्चकर, उत्पल पत्र, वृध-पत्र, वृहिमुख तथा वेतस-पत्र

आज से कम से कम तीन हजार वर्ष पूर्व सुश्रुत ने सर्वोत्कृष्ट इस्पात के उपकरण बनाये जाने की आवश्यकता बताई। आचार्य ने इस पर भी बल दिया है कि उपकरण तेज धार वाले हों तथा इतने पैने कि उनसे बाल को भी दो हिस्सों में काटा जा सके। यन्त्रों की डिजाइन के सम्बन्ध में महर्षि ने कहा है कि अनेक प्रकार के हिंसक पशु, मृग और पक्षियों के मुख के समान इनका मुख बनाना चाहिये क्योंकि जानवरों के मुख प्रायः यन्त्रों के समान होते हैं। इसलिये उक्त प्रकार के पशु–पक्षियों के मुख–सादृश्यानुसार, वेदादि शास्त्रों के प्रामाणानुकूल, अनुभवी वैद्यों के कथनानुसार एवं पूर्वकाल में बने हुए यन्त्रों के समान और युक्तियुक्त यन्त्रों का निर्माण करना चाहिये।

तत्र, नानाप्रकाराणां व्यालानां मृगपक्षिणां मुखैर्मुखानि यन्त्राणां प्रायशः सदृशानि। तस्मात् तत्सारूप्यादागमादुपदेशादन्ययन्त्रदर्शनाद् युक्तितश्च कारयेत्॥८॥ (सूत्रस्थान, यन्त्रविध्यध्याय)

शल्यक्रिया से पहले व बाद में वातावरण व उपकरणों की शुद्धता (रोग-प्रतिरोधी वातावरण) पर सुश्रुत ने विशेष जोर दिया है। शल्य चिकित्सा (सर्जरी) से पहले रोगी को संज्ञा-शून्य करने (एनेस्थेशिया) की विधि व इसकी आवश्यकता भी बताई गई है।

इन उपकरणों के साथ ही आवश्यकता पड़ने पर बांस, स्फटिक तथा कुछ विशेष प्रकार के प्रस्तर खण्डों का उपयोग भी शल्य क्रिया में किया जाता था। शल्य क्रिया के मर्मज्ञ महर्षि सुश्रुत ने १४ प्रकार की पट्टियों का विवरण किया है। उन्होंने हड्डियों के खिसकने के छह प्रकारों तथा अस्थिभंग के १२ प्रकारों की विवेचना की है। यही नहीं, सुश्रुतसंहिता में कान संबंधी बीमारियों के २८ प्रकार तथा नेत्र-रोगों के २६ प्रकार बताए गए हैं।

सुश्रुत संहिता में मनुष्य की आंतों में कर्कट रोग (कैंसर) के कारण उत्पन्न हानिकर तन्तुओं (टिश्युओं) को शल्य क्रिया से हटा देने का विवरण है। शल्यक्रिया द्वारा शिशु-जन्म (सीजेरियन) की विधियों का वर्णन किया गया है। ‘न्यूरो-सर्जरी‘ अर्थात्‌ रोग-मुक्ति के लिए नाड़ियों पर शल्य-क्रिया का उल्लेख है तथा आधुनिक काल की सर्वाधिक पेचीदी क्रिया ‘प्लास्टिक सर्जरी‘ का सविस्तार वर्णन सुश्रुत के ग्रन्थ में है।

अस्थिभंग, कृत्रिम अंगरोपण, प्लास्टिक सर्जरी, दंतचिकित्सा, नेत्रचिकित्सा, मोतियाबिंद का शस्त्रकर्म, पथरी निकालना, माता का उदर चीरकर बच्चा पैदा करना आदि की विस्तृत विधियाँ सुश्रुतसंहिता में वर्णित हैं।

सुश्रुतसंहिता की टीकाएँ

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सुश्रुतसंहिता शल्यपरम्परा का आधारभूत ग्रन्थ है, जिसमें शल्यचिकित्सा की विधाओं के निर्देश के साथ-साथ प्रत्यक्ष कर्माभ्यास को भी पर्याप्त महत्त्व दिया गया है। किन्तु प्रत्यक्ष कर्माभ्यास शास्त्र के सम्यक् अध्ययनोपरान्त ही सम्भव है। संहिता के गूढार्थ को समझे बिना प्रत्यक्ष कर्माभ्यास में सम्यक् गति होना सम्भव नहीं है तथा बिना कर्माभ्यास के शल्यचिकित्सा में सिद्धि की कल्पना व्यर्थ है। अस्तु संहिता के गूढ एवं अस्फुटित विषयों के प्रकाशनार्थ परवर्ती आचार्यों द्वारा इस संहिता पर अनेक व्याख्याओं का प्रणयन किया गया। अधुना उनमें से कतिपय व्याख्याएँ ही उपलब्ध हो पाती हैं। वर्तमान में सुश्रुतसंहिता पर डल्हणविरचित निबन्धसङ्ग्रह, गयदासविरचित न्यायचन्द्रिका, चक्रपाणिदत्त विरचित भानुमती एवं हाराणचन्द्र विरचित सुश्रुतार्थसन्दीपन व्याख्याएँ उपलब्ध हैं। इनमें से न्यायचन्द्रिका केवल निदानस्थान पर और भानुमती केवल सूत्रस्थान पर उपलब्ध है जबकि निबन्धसङ्ग्रह और सुश्रुतार्थसन्दीपन व्याख्याएँ पूर्णतः प्रकाशित हैं। निबन्धसङ्ग्रह सुश्रुतसंहिता की उपलब्ध व्याख्याओं में से पठन-पाठन में सर्वाधिक प्रचलित एवं परमोपयोगी व्याख्या है। इस व्याख्या की महत्ता न केवल सम्पूर्ण उपलब्ध होने के कारण है अपितु विषयों का सरल एवं सुबोध भाषा में स्पष्टीकरण भी इसके महत्त्व ख्यापन का एक हेतु है। इस व्याख्या के बारे में विद्वज्जनों की मान्यता यह है कि संस्कृत का सामान्य ज्ञान रखने वाला स्नातक भी इसके सहित सुश्रुतसंहिता का अध्ययन करके आयुर्वेद के गूढ रहस्यों को आसानी से समझ लेता है। इस व्याख्या में द्रव्यों के अप्रचलित नामों पर टीका करते हुए प्रचलित पर्यायों का उल्लेख करके सन्दिग्ध द्रव्यों की समस्या का कुछ हद तक समाधान किया गया है।

सन्दर्भ

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  1. सुश्रुत तत्व प्रदीपिका (डॉ अजय कुमार, डॉ टीना सिंहल) पृष्ट ११ पर

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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