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सालिम अली

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सालिम अली

सालिम अली
जन्म 12 नवम्बर 1896
मुम्बई, भारत
मृत्यु जून 20, 1987(1987-06-20) (उम्र 90 वर्ष)
मुम्बई, भारत
राष्ट्रीयता भारत
जातियता Sulaimani Bohra
क्षेत्र पक्षीविज्ञान
प्राकृतिक इतिहास
प्रभाव Erwin Stresemann
उल्लेखनीय सम्मान पद्म विभूषण (1976)

सालिम मुईनुद्दीन अब्दुल अली (12 नवंम्बर 1896 - 20 जुन 1987) एक भारतीय पक्षी विज्ञानी और प्रकृतिवादी थे। उन्हें "भारत के बर्डमैन" के रूप में जाना जाता है, सालिम अली भारत के ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारत भर में व्यवस्थित रूप से पक्षी सर्वेक्षण का आयोजन किया और पक्षियों पर लिखी उनकी किताबों ने भारत में पक्षी-विज्ञान के विकास में काफी मदद की है। 1976 में भारत के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से उन्हें सम्मानित किया गया। 1947 के बाद वे बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के प्रमुख व्यक्ति बने और संस्था की खातिर सरकारी सहायता के लिए उन्होंने अपने प्रभावित किया और भरतपुर पक्षी अभयारण्य (केवलादेव नेशनल पार्क) के निर्माण और एक बाँध परियोजना को रुकवाने पर उन्होंने काफी जोर दिया जो कि साइलेंट वेली नेशनल पार्क के लिए एक खतरा थी।

प्रारंभिक जीवन

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सालिम अली का जन्म बॉम्बे के एक सुलेमानी बोहरा मुस्लिम परिवार में हुआ। वे अपने परिवार में सबसे छोटे और नौंवे बच्चे थे। जब वे एक साल के थे तब उनके पिता मोइज़ुद्दीन का स्वर्गवास हो गया और जब वे तीन साल के हुए तब उनकी माता ज़ीनत-उन-निस्सा का भी देहांत हो गया। बच्चों का बचपन मामा अमिरुद्दीन तैयाबजी और बेऔलाद चाची, हमिदा बेगम की देख-रेख में मुंबई की खेतवाड़ी इलाके में एक मध्यम वर्ग परिवार में हुआ।[1] उनके एक और चाचा अब्बास तैयाबजी थे जो कि प्रसिद्ध भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बी॰एन॰एच॰एस॰) के सचिव डबल्यू॰एस॰ मिलार्ड की देख-रेख में सालिम ने पक्षियों पर गंभीर अध्ययन करना शुरू किया, जिन्होंने असामान्य रंग की गौरैया की पहचान की थी, जिसे युवा सालिम ने खेल-खेल में अपनी खिलौना बंदूक से शिकार किया था। मिलार्ड ने इस पक्षी की एक पीले-गले की गौरैया के रूप में पहचान की और सलिम को सोसायटी में संग्रहीत सभी पक्षियों को दिखाया।[2] मिलार्ड ने सालिम को पक्षियों के संग्रह करने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए कुछ किताबें दी जिसमें कहा कि कॉमन बर्ड्स ऑफ मुंबई भी शामिल थी और छाल निकालने और संरक्षण में उन्हें प्रशिक्षित करने की पेशकश की। युवा सालिम की मुलाकात (बाद के अध्यापक) नोर्मन बॉयड किनियर से हुई, जो कि बी॰एन॰एच॰एस॰ में प्रथम पेड क्यूरेटर थे, जिन्हें बाद में ब्रिटिश संग्रहालय से मदद मिली थी।[3] उनकी आत्मकथा द फॉल ऑफ ए स्पैरो में अली ने पीले-गर्दन वाली गौरैया की घटना को अपने जीवन का परिवर्तन-क्षण माना है क्योंकि उन्हें पक्षी-विज्ञान की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा वहीं से मिली थी, जो कि एक असामान्य कैरियर चुनाव था, विशेषकर उस समय एक भारतीय के लिए।[4] उनकी प्रारंभिक रूचि भारत में शिकार से संबंधित किताबों पर थी, लेकिन बाद में उनकी रूचि स्पोर्ट-शूटिंग की दिशा में आ गई, जिसके लिए उनके पालक-पिता अमिरुद्दीन द्वारा उन्हें काफी प्रोत्साहना प्राप्त हुआ। आस-पड़ोस में अक्सर शूटिंग प्रतियोगिता का आयोजन होता था जहाँ वे पले-बढ़े थे और उनके खेल साथियों में इसकंदर मिर्ज़ा भी थे, जो कि दूर के भाई थे और वे एक अच्छे निशानेबाज भी थे, जो अपने बाद के जीवन में पाकिस्तान के पहले राष्ट्रपति बने।[5]

सालिम अली अपनी प्राथमिक शिक्षा के लिए अपनी दो बहनों के साथ गिरगौम में स्थापित ज़नाना बाइबिल मेडिकल मिशन गर्ल्स हाई स्कूल में भर्ती हुए और बाद में मुंबई के सेंट जेविएर में दाखिला लिया। लगभग 13 साल की उम्र में वे सिरदर्द से पीड़ित हुए, जिसके चलते उन्हें कक्षा से अक्सर बाहर होना पड़ता था। उन्हें अपने एक चाचा के साथ रहने के लिए सिंध भेजा गया जिन्होंने यह सुझाव दिया था कि शुष्क हवा से शायद उन्हें ठीक होने में मदद मिले और लंबे समय के बाद वापस आने के बाद बड़ी मुश्किल से 1913 में बॉम्बे विश्वविद्यालय से दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण हो पाए।[6]

बर्मा और जर्मनी

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पीले-गले की गौरैया

सलिम अली की प्रारंभिक शिक्षा सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई में हुई। कॉलेज में मुश्किल से भरे पहले साल के बाद, उन्हें बाहर कर दिया गया और वे परिवार के वोलफ्रेम (टंग्सटेन) माइनिंग (टंगस्टेन का इस्तेमाल कवच बनाने के लिए किया जाता था और युद्ध के दौरान महत्वपूरण था) और इमारती लकड़ियों की देख-रेख के लिए टेवोय, बर्मा (टेनासेरिम) चले गए। यह क्षेत्र चारों ओर से जंगलों से घिरा था और अली को अपने प्रकृतिवादी (और शिकार) कौशल को उत्तम बनाने का अवसर मिला। उन्होंने जे॰सी॰ होपवुड और बर्थोल्ड रिबेनट्रोप के साथ परिचय बढ़ाया जो कि बर्मा में फोरेस्ट सर्विस में थे। सात साल के बाद 1917 में भारत वापस लौटने के बाद उन्होंने औपचारिक पढ़ाई जारी रखने का फैसला किया। उन्होंने डावर कॉमर्स कॉलेज में वाणिज्यिक कानून और लेखा का अध्ययन किया। हालाँकि सेंट जेवियर कॉलेज में फादर एथलबेर्ट ब्लेटर ने उनकी असली रुचि को पहचाना है और उन्हें समझाया। डावर्स कॉलेज में प्रातःकाल की कक्षा में भाग लेने के बाद, उन्हें सेंट जेवियर्स में प्राणी शास्त्र की कक्षा में भाग लेना था और वे प्राणीशास्त्र पाठ्यक्रम में प्रतियोगिता करने में सक्षम थे।[7][8] बॉम्बे में लम्बे अंतराल की छुट्टी के दौरान उन्होंने अपने दूर की रिश्तेदार तहमीना से दिसंबर 1918 में विवाह किया।[9]

लगभग इसी समय विश्वविद्यालय की औपचारिक डिग्री न होने के कारण जूलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के एक पक्षी विज्ञानी पद को हासिल करने में अली असमर्थ रहे थे, जिसे अंततः एम॰एल॰ रूनवाल को दे दिया गया।[10] हालाँकि 1926 में मुंबई के प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय में हाल में शुरू हुए एक प्राकृतिक इतिहास खंड में 350 रूपए के वेतन पर एक गाइड के रूप में व्याख्याता नियुक्त होने के बाद उन्होंने पढ़ाई करने का फैसला किया।[2][11] हालाँकि वे दो साल तक नौकरी करने के बाद काम से थक गए थे और 1928 में जर्मनी के लिए अध्ययन अवकाश लेने का फैसला किया, जहाँ उन्हें बर्लिन विश्वविद्यालय के प्राणिशास्त्र संग्रहालय में प्रोफेसर इरविन स्ट्रेसमैन के अधीन काम करना था। जे॰ के॰ स्टैनफोर्ड द्वारा एकत्रित नमूनों की जाँच करना उनके काम के एक हिस्से में शामिल था। एक बी॰एन॰एच॰एस॰ सदस्य स्टैनफोर्ड ने ब्रिटिश संग्रहालय में क्लाउड टाइसहर्स्ट के साथ सम्पर्क स्थापित किया था जो बी॰एन॰एच॰एस॰ के मदद के साथ स्वयं कार्य लेना चाहता था। टाइसहर्स्ट ने एक भारतीय को काम में शामिल करने के विचार की सराहना नहीं की और स्ट्रेसमैन की भागीदारी का विरोध किया जो कि भले ही एक जर्मन था।[12] इसके बावजूद अली बर्लिन गए और उस समय के कई प्रमुख जर्मन पक्षी विज्ञानियों से मेलजोल बढ़ाया जिसमें बर्नहार्ड रेन्श, ओस्कर हेनरोथ और एर्न्स्ट मेर शामिल थे। उन्होंने वेधशाला हेलिगोलैंड पर भी अनुभव प्राप्त किया।[13]

पक्षीविज्ञान

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मोरी और डिलन रिप्ले के साथ एक संग्रह यात्रा पर (1976)

1930 में भारत लौटने पर उन्होंने पाया कि गाइड व्याख्याता के पद को पैसों की कमी के कारण समाप्त कर दिया गया है। और एक उपयुक्त नौकरी खोजने में वे असमर्थ थे, उसके बाद सालिम अली और तहमीना मुम्बई के निकट किहिम नामक एक तटीय गाँव में स्थानांतरित हुए। यहाँ उन्हें बाया वीवर के प्रजनन को नज़दीक से अध्ययन करने का अवसर मिला और उन्होंने उसकी क्रमिक बहुसंसर्ग प्रजनन प्रणाली की खोज की।[14] बाद में टीकाकारों ने सुझाव दिया कि यह अध्ययन मुगल प्रकृतिवादियों की परंपरा थी और सालिम अली की प्रशंसा की।[15] उसके बाद उन्होंने कुछ महीने कोटागिरी में बिताया जहाँ के॰एम॰ अनंतन ने उन्हें आमंत्रित किया था, अनंतन एक सेवानिवृत्त आर्मी डॉक्टर थे जिन्होंने प्रथम विश्व के दौरान मेसोपोटामिया की सेवा की थी। अली का सम्पर्क श्रीमती किनलोच से भी हुआ जो लाँगवुड शोला में रहती थी और उनके दामाद आर॰सी॰ मोरिस जो बिलिगिरिरंगन हिल्स में रहता था।[16] इसके बाद उन्हें शाही राज्यों में वहाँ के शासकों के प्रायोजन में व्यवस्थित रूप से पक्षी सर्वेक्षण करने का अवसर मिला जिसमें हैदराबाद, कोचिन, त्रावणकोर, ग्वालियर, इंदौर और भोपाल शामिल हैं। उन्हें ह्यूग व्हिस्लर से काफी सहायता और समर्थन प्राप्त हुआ जिन्होंने भारत के कई भागों का सर्वेक्षण किया था और इससे संबंधित काफी महत्वपूर्ण नोट्स रखे थे। दिलचस्प बात यह है कि व्हिस्लर शुरू-शुरू में इस अज्ञात भारतीय से काफी चिढ़ गए थे। द स्टडी ऑफ इंडियन बर्ड्स में व्हिस्लर ने उल्लेख किया कि ग्रेटर रैकेट-टेल ड्रोंगो की लंबी पूँछ में आंतरिक फलक पर वेबिंग की कमी होती है।[17] सलिम अली ने लिखा कि इस तरह की अशुद्धियाँ प्रारंभिक साहित्य से चली आ रही हैं और सुस्पष्ट किया कि मेरूदंड के मोड़ के बारे में यह गलत था।[18] शुरू-शुरू में व्हिस्लर एक अज्ञात भारतीय द्वारा गलत सर्वेक्षण से नाराज हुए और जर्नल के संपादक एस॰एच॰ प्रेटर और सर रेगीनाल्ड स्पेंस को "घमंड" से भरा हुआ एक पत्र लिखा। बाद में व्हिस्लर ने फिर से नमूनों की जाँच की और न केवल अपनी त्रुटि को माना[19] बल्कि अली के वे एक करीबी दोस्त भी बन गए।[20]

व्हिस्लर ने सलिम का परिचय रिचर्ड मेनर्टज़ेगन से भी करवाया और दोनों ने मिलकर अफगानिस्तान में अभियान किया। हालाँकि सलिम के बारे में मेनर्टज़ेगन के विचार भी आलोचनात्मक थे लेकिन वे भी दोस्त बन गए। सालिम अली ने मेनर्टज़ेगन के पक्षी कार्यों में कुछ भी ख़ास नहीं पाया लेकिन बाद के कई अध्ययनों में कपटता को पाया गया। मेनर्टज़ेगन सर्वेक्षण के दिनों से डायरी लिखा करते थे और सालिम अली ने अपनी आत्मकथा में उसे पुनः प्रस्तुत किया है:[21]

30.4.1937 'I am disappointed in Salim. He is quite useless at anything but collecting. He cannot skin a bird, nor cook, nor do anything connected with camp life, packing up or chopping wood. He writes interminable notes about something-perhaps me... Even collecting he never does on his own initiative...

20.5.1937 'Salim is the personification of the educated Indian and interests me a great deal. He is excellent at his own theoretical subjects, but has no practical ability, and at everyday little problems is hopelessly inefficient... His views are astounding. He is prepared to turn the British out of India tomorrow and govern the country himself. I have repeatedly told him that the British Government have no intention of handing over millions of uneducated Indians to the mercy of such men as Salim:...

सलिम अली के प्रारंभिक सर्वेक्षणों में उनकी पत्नी तहमीना का साथ और समर्थन दोनों प्राप्त हुआ और एक मामूली सर्जरी के बाद 1939 में उनकी पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद वे एकदम टूट गए। 1939 में तहमीना की मृत्यु के बाद, सलिम अली अपनी बहन कम्मो और बहनोई के साथ रहने लगे। अपनी उत्तर्राध यात्रा में अली ने फिन्स बाया कुमाऊं तराई की जनसंख्या की फिर से खोज की लेकिन माउंटेन क्वाली (ओफ्रेसिया सुपरसिलिओसा) की खोज अभियान में असफल रहे और आज भी यह अज्ञातता बरकरार है।

मैसूर राज्य सर्वेक्षण के दौरान सालिम अली द्वारा एकत्रित नमूने के लिये लेबल

पक्षी वर्गीकरण और वर्गीकरण विज्ञान के विवरण के बारे में अली बहुत ज्यादा इच्छुक नहीं थे और क्षेत्र में पक्षियों का अध्ययन करने में अधिक रुचि रखते हैं।[22][23] अर्स्ट मेर ने रिप्ले को शिकायत करते हुए लिखा कि अली पर्याप्त नमूनों को इकट्ठा करने में विफल रहे हैं: "जहाँ तक संग्रह करने की बात है मुझे नहीं लगता कि वे कभी श्रृंखला एकत्रीकरण की आवश्यकताओं को समझ सके हैं। शायद आप ही इसके बारे में उसे समझा सकते हैं।"[22] स्वयं अली ने रिप्ले को पक्षी वर्गीकरण के बारे में शिकायत करते हुए लिखा:

My head reels at all these nomenclatural metaphysics! I feel strongly like retiring from ornithology, if this is the stuff, and spending the rest of my days in the peace of the wilderness with birds, and away from the dust and frenzy of taxonomical warfare. I somehow feel complete detachment from all this, and am thoroughly unmoved by what name one ornithologist chooses to dub a bird that is familiar to me, and care even less in regard to one that is unfamiliar ----- The more I see of these subspecific tangles and inanities, the more I can understand the people who silently raise their eyebrows and put a finger to their temples when they contemplate the modern ornithologist in action.
—Ali to Ripley, 5 जनवरी 1956[24]

बाद में अली ने लिखा कि उनकी दिलचस्पी "प्राकृतिक पर्यावरण में जीवित पक्षी में है।"[25]

सिडना डिलन रिप्ले के साथ सालिम अली का साथ कई नौकरशाही समस्याओं की ओर उन्मुख हुआ। अतीत में रिप्ले की ओएसएस एजेंट होने के चलते उन्हें कई आरोपों को झेलना पड़ा जिसमें सी॰आई॰ए॰ का भारतीय पक्षी कारोबार में भागीदारी होने का आरोप शामिल था।[26]

सलिम अली ने अपने दोस्त लोके वान थो के साथ पक्षियों की तस्वीरें निकालने में थोड़ी बहुत दिलचस्पी दिखाई। लोके ने अली का परिचय बी॰एन॰एच॰एस॰ सदस्य और रॉयल इंडियन नेवी के लेफ्टिनेंट कमांडर जेटीएम गिब्सन से करवाया जिन्होंने स्विट्जरलैंड में एक स्कूल में लोके को अंग्रेजी सिखाई थी। वे सिंगापुर के एक अमीर व्यापारी थे और पक्षियों में उनकी काफी गहरी रुचि थी। लोके ने अली और बी॰एन॰एच॰एस॰ की मदद वित्तीय समर्थन के साथ की।[27] भारत में पक्षीविज्ञान के ऐतिहासिक पहलुओं के बारे में भी अली की काफी दिलचस्पी थी। लेखों की एक शृंखला में, अपने पहले प्रकाशन में उन्होंने मुगल सम्राटों के प्राकृतिक इतिहास के योगदान की जाँच की। 1971 के सुंदर लाल होरा स्मारक व्याख्यान और 1978 के आजाद मेमोरियल व्याख्यान में उन्होंने भारत में पक्षी अध्ययन का महत्व और इतिहास के बारे में बात की।[28][29][30]

अन्य योगदान

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सलिम अली बीएनएचएस की उत्तरजीविता सुनिश्चित करने में बहुत प्रभावशाली रहे और वित्तीय सहायता के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को लिखने के माध्यम से 100 साल पुराने संस्थान को किसी तरह बनाए रखने में सफल रहे। सलिम ने अपने परिवार के अन्य सदस्यों को भी प्रभावित किया। एक चचेरे भाई,[31] हुमायूं अब्दुलाली एक पक्षी विज्ञानी बने, जबकि उनकी भतीजी लीक ने पक्षियों में दिलचस्पी ली और ज़ाफर फुटहले से शादी की, अली की दूर के एक चचेरे भाई जो बाद में बी॰एन॰एच॰एस॰ के मानद सचिव बने और भारत में पक्षीप्रेमियों के नेटवर्किंग के माध्यम से पक्षी अध्ययन के विकास में एक प्रमुख भूमिका निभाई. अली ने कई एम॰एससी॰ और पी॰एच॰डी॰ छात्रों को निर्देशित किया जिनमें से पहला विजय कुमार अम्बेडकर था, जिसने बाद में ब्रिडिंग एंड इकोलॉजी ऑफ द बाया विवर पर अध्ययन किया और एक शोधग्रंथ प्रस्तुत किया, जिसकी सकारात्मक समीक्षा डेविड लेक द्वारा की गई।[32][33][34]

महत्वपूर्ण क्षेत्रों जहाँ-जहाँ धन प्राप्त किया जा सकता था, उसकी पहचान के द्वारा अली भारत में पक्षीविज्ञान के विकास के लिए सहायता प्रदान करने में सक्षम थे। कृषि अनुसंधान के लिए भारतीय परिषद के भीतर एक आर्थिक इकाई की स्थापना में उन्होंने मदद की।[35][36] क्यासनुर वन रोग, एक सन्धिपाद जनित वायरस जो कि एक साइबेरियाई रूप के समान था, पर अध्ययन करने के लिए परियोजना के माध्यम से प्रवास के अध्ययन के लिए वे मार्ग प्रशस्त करने में सक्षम थे। यह परियोजना संयुक्त राज्य अमेरिका के पीएल 480 द्वारा आंशिक रूप से वित्त पोषित था लेकिन राजनीतिक मुश्किलों के चलते समाप्त हो गया।[37] 1980 के उत्तरार्ध में, उन्होंने एक बी॰एन॰एच॰एस॰ परियोजना का भी निर्देशन किया जिसका उद्देश्य भारतीय हवाई अड्डों पर पक्षियों के टकराने को कम करना था। उन्होंने भारत के उन पक्षी प्रेमियों जो "न्यूज़लेटर फॉर बर्डवाचर्स" से संबंधित थे, के माध्यम से भी प्रारंभिक नागरिक विज्ञान परियोजनाओं पर काम करने का प्रयास किया।[38]

डॉ॰ अली का विशेष कर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के माध्यम से स्वातंत्र्योत्तर भारत में संरक्षण संबंधित मुद्दों पर काफी प्रभाव था। इंदिरा गांधी स्वयं एक गहन पक्षी प्रेमी थी और वो अली के पक्षी पुस्तक (1924 में इंदिरा गांधी को उनके पिता नेहरू द्वारा "बुक ऑफ इंडियन बर्ड्स" की एक प्रति उपहार के रूप में दी गई थी, जब वे देहरादून जेल में थे और वे खुद नैनी जेल में कैद थीं[39]) और गांधीवादी पक्षी प्रेमी होरेस अलेक्जेंडर से काफी प्रभावित थी। अली ने भरतपुर पक्षी अभयारण्य के नाम और निर्णय को प्रभावित किया जिससे साइलेंट वैली नेशनल पार्क का बचाव हुआ। अली ने बाद में भी भरतपुर में हस्तक्षेप किया जिसके अंतर्गत उन्होंने अभयारण्य में पशु और चरागाह का बहिष्कार किया क्योंकि यह काफी मँहगा साबित हो रहा था और इससे पारिस्थितिक परिवर्तन फलित हो रहे थे और जिसके चलते जल पक्षियों की कई प्रजातियों की संख्या में गिरावट आई। कुछ इतिहासकारों ने उल्लेख किया कि सालिम अली और बी॰एन॰एच॰एस॰ द्वारा संरक्षण के लिए जिस दृष्टिकोण का इस्तेमाल किया गया वह अलोकतांत्रिक था।[40][41]

व्यक्तिगत विचार

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सालिम अली के कई विचार अपने समय के मुख्य धारा के विचारों से विपरीत थे। एक ऐसा सवाल जिसे अक्सर उनसे पूछा गया था वह था पक्षी के नमूनों के संग्रह का, विशेष कर बाद के जीवन में जब वे संरक्षण संबंधित सक्रियता के लिए जाने जाते थे। हालाँकि कभी शिकार (आखेट) साहित्य के प्रशंसक रहे अली के विचार शिकार को लेकर कड़े रहे लेकिन उन्होंने वैज्ञानिक अध्ययन के लिए पक्षी के नमूनों का संग्रह जारी रखा।[42] उनके अपने विचार थे कि वन्य जीव संरक्षण के अभ्यास को व्यावहारिकता की आवश्यकता है और उसे अहिंसा जैसे दर्शन पर आधारित नहीं करना चाहिए।[43] उन्होंने कहा कि यह मौलिक धार्मिक भावना भारत में पक्षी अध्ययन के विकास में एक बाधा था।[30]

it is true that I despise purposeless killing, and regard it as an act of vandalism, deserving the severest condemnation. But my love for birds is not of the sentimental variety. It is essentially aesthetic and scientific, and in some cases may even be pragmatic. For a scientific approach to bird study, it is often necessary to sacrifice a few, ... (and) I have no doubt that but for the methodical collecting of specimens in my earlier years - several thousands, alas - it would have been impossible to advance our taxonomical knowledge of Indian birds ... nor indeed of their geographic distribution, ecology, and bionomics.

Ali (1985):195

वे एक मुसलमान के घर में पले-बढ़े थे और अपने बचपन के दिनों में ही बिना अरबी समझे ही कुरान पढ़ना सिखाया गया था। अपने वयस्क जीवन में उन्होंने उसे तिरस्कृत किया क्योंकि उन्होंने प्रार्थना को एक आडम्बरपूर्ण अभ्यास समझा और उन्हें "बड़े-बूढ़ों के पाखंडी दिखावे" से खीझ होती थी।[44]

1960 के दशक के प्रारम्भ में भारत के लिए राष्ट्रीय पक्षी पर विचार किया जा रहा था और सालिम अली चाहते थे कि वह पक्षी ग्रेट इंडियन बस्टर्ड हो, हालाँकि भारतीय मोर के पक्ष में इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया।[45][46][47][48]

सम्मान और स्मारक

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हालाँकि उन्हें मान्यता काफी देर से मिली, लेकिन उन्होंने कई मानद डॉक्टरेट और कई पुरस्कार प्राप्त किए। सबसे पहले 1953 में "जोय गोबिन्दा लॉ स्वर्ण पदक" था, जिसे एशिएटिक सोसायटी ऑफ बंगाल द्वारा दिया गया और यह पुरस्कार सुंदर लाल होरा (1970 में इंडियन नेशनल साइंस अकादमी के सुंदर लाल होरा मेमोरियल मेडल प्राप्त किया था) द्वारा उनके काम के मूल्यांकन के आधार पर दिया गया था। उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (1958), दिल्ली विश्वविद्यालय (1973) और आंध्र विश्वविद्यालय (1978) से मानद डॉक्टरेट प्राप्त हुई। 1967 में वे ऐसे पहले गैर-ब्रिटिश नागरिक बने जिन्होंने ब्रिटिश ओर्निथोलोजिस्ट यूनियन का स्वर्ण पदक हासिल किया। इसी वर्ष में, उन्होंने $100,000 राशी वाली जे॰ पॉल गेट्टी वाइल्डलाइफ कंजरवेशन पुरस्कार जीता, जिसका इस्तेमाल उन्होंने सालिम अली नेचर कंजरवेशन फंड के कोष का निर्माण के लिए किया। 1969 में उन्होंने प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के अंतर्राष्ट्रीय संघ के लिए सी॰ फिलिप्स स्मारक पदक प्राप्त किया। 1973 में यू॰एस॰एस॰आर॰ अकादमी ऑफ मेडिकल साइंस ने उन्हें पावलोवस्की सैनेटेनरी मेमोरियल मेडल प्रदान किया और इसी वर्ष में ही नीदरलैंड की प्रिंस बर्नहार्ड द्वारा उन्हें नीदरलैंड के ऑर्डर ऑफ द गोल्डेन आर्क का कमांडर बनाया गया था। भारत सरकार ने 1958 में उन्हें पद्म भूषण और 1976 में पद्म विभूषण पुरस्कार से नवाजा।[49] 1985 में उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया था।[50]

लम्बे समय से प्रोस्टेट कैंसर से जूझ रहे 91 वर्षीय सालिम अली का 1987 में निधन हुआ। 1990 में, भारत सरकार द्वारा कोयंबटूर में सलिम अली सेंटर फॉर ओर्निथोलोजी एंड नेचुरल हिस्टरी (SACON) को स्थापित किया गया। पांडिचेरी विश्वविद्यालय ने सालिम अली स्कूल ऑफ इकोलॉजी और एनवायरनमेंटल साइंसेस की स्थापना की। गोवा सरकार ने सालिम अली बर्ड सेंचुरी की स्थापना की और केरल में वेम्बानाड के करीब थाटाकड पक्षी अभयारण्य भी उन्हीं के नाम पर है। बंबई में बी॰एन॰एच॰एस॰ के स्थान का पुनः नामकरण करते हुए "डॉ सालिम अली चौक" किया गया। 1972 में, किट्टी थोंग्लोंग्या ने बी॰एन॰एच॰एस॰ के संग्रह में गलत नमूनों को पहचाना और एक नए प्रजाति का वर्णन किया जिसे वे लेटिडेंस सलिमली कहते थे, जिसे दुनिया का सबसे विरला चमगादड़ और जीनस लेटिडेंस की एकमात्र प्रजाति माना गया। व्हिस्लर और अबडुलाली क्रमशः रॉक बुश क्वेली (पर्डिकुला अर्गोनडाह सलिमली) की उप-प्रजाति और फिन्ल विवर (प्लोसिअस मेगार्चुस सलिमली) पूर्वोत्तर जनसंख्या का नाम भी उनके नाम पर रखा गया।[51][52] व्हिस्लर और किनियर द्वारा ब्लैक-रम्प्ड फ्लैमबैक वुडपेकर (डिनोपिएम बेंघालेंस तहमिने) की एक उप-प्रजाति का नाम उनकी पत्नी की मृत्यु के बाद रखा गया।[53]

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सलिम अली ने कई पत्रिकाओं के लिए लेख लिखा है, मुख्य रूप से जर्नल ऑफ द बॉम्बे नेचुरल हिस्टरी सोसायटी के लिए लिखा है। साथ ही उन्होंने कई लोकप्रिय और शैक्षिक पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें से कुछ अभी भी प्रकाशित नहीं हुई हैं। इसके लिए अली ने तहमीना को श्रेय दिया है जिसने इनकी अंग्रेजी में सुधार करने के लिए इंग्लैंड में अध्ययन किया था। उनके कुछ साहित्यिक लेखों को अंग्रेजी लेखन के संग्रह में इस्तेमाल किया गया था। 1930 में इन्होने एक लोकप्रिय लेख लिखा था जिसका शीर्षक है स्टॉपिंग बाय द वुड्स ऑन ए संडे मोर्निंग, जिसका पुनः प्रकाशन 1984 में उनके जन्म दिवस के अवसर पर इंडियन एक्सप्रेस में किया गया था।[54] उनकी सबसे लोकप्रिय कार्य द बुक ऑफ इंडियन बर्ड्स पुस्तक थी, जिसे व्हिस्लर की पोपुलर हैंडबुक ऑफ बर्ड्स की शैली में लिखी गई और इसके पहले संस्करण का प्रकाशन 1941 में किया गया, इसका अनुवाद कई भाषाओं में किया गया और इसके 12 संस्करण को प्रकाशित किया गया है। पहले दस संस्करणों की करीब छियालिस हजार से भी अधिक प्रतियों की बिक्री हुई।[55] 1943 में पहले संस्करण की समीक्षा अर्नस्ट मेर द्वारा की गई थी, जिन्होंने इसकी सराहना की, हालाँकि उन्होंने टिप्पणी करते हुए कहा कि इसके चित्र अमेरिकी बर्ड बुक के स्तर के नहीं है।[56] हालांकि उनकी सर्वोत्कृष्ट कृति डिल्लन रिप्ले के साथ लिखी हैंडबुक ऑप द बर्ड्स ऑफ इंडिया एंड पाकिस्तान थी जो 10 खण्डों वाली थी और इसे केवल "हैंडबुक" के रूप में उल्लेख किया जाता है। इस कार्य को 1964 में शुरू किया गया था और 1974 में समाप्त हुआ और इनकी मृत्यु के बाद अन्यों के द्वारा इसके दूसरे संस्करण को समाप्त किया गया जिसमें बी॰एन॰एच॰एस॰ के जे॰एस॰ सेराव, ब्रुस बीहलर, माइकल डेलफायज और पामेला रसमुसेन उल्लेखनीय हैं।[57] "हैंडबुक" का एकमात्र "कॉम्पैक्ट संस्करण" का भी निर्माण किया गया और अनुपूरक निदर्शी कार्य ए पिक्टोरिएल गाइड टू द बर्ड्स ऑफ द इंडियन सबकॉटिनेंट, जिसका चित्र जॉन हेनरी डिक द्वारा किया गया था और सह-लेखक डिल्लन रिप्ले थे और इसका प्रकाशन 1983 में किया गया था, इन प्लेटों का इस्तेमाल हैंडबुक के दूसरे संस्करण में भी किया गया।[57]

चित्र:Salimalibooks.jpg
सालिम अली द्वारा लिखित कुछ पुस्तकें

उन्होंने क्षेत्रीय गाइड का भी निर्माण किया है जिसमें "द बर्ड्स ऑफ केरला" (1953 में पहला संस्करण निकला था और "द बर्ड्स ऑफ त्रावणकोर" शीर्षक था), "द बर्ड्स ऑफ सिक्किम", "द बर्ड्स ऑफ कच्छ" (बाद में "द बर्ड्स ऑफ गुजरात"), "इंडियन हिल बर्ड्स" और "द बर्ड्स ऑफ इस्टर्न हिमालय" शामिल हैं।[58] नैशनल बुक ट्रस्ट द्वारा कई कम लागत की पुस्तकों को प्रकाशित किया गया जिसमें "कॉमन बर्ड्स" (1967) जिसे उन्होंने अपने भतीजी लीक फुटेहली के साथ लिखा था, जिसका हिन्दी और अन्य भाषा में अनुवाद के साथ कई संस्करणों को मुद्रित किया गया था।[59][60] 1985 में उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी जिसका शीर्षक द फॉल ऑफ स्पैरो है। बॉम्बे नेचुरल हिस्टरी सोसायटी के बारे में अली ने अपने दृष्टिकोणों को लिखा है, जिसमें संरक्षण से संबंधित गतिविधियों की महता का उल्लेख किया है।[61] बी॰एन॰एच॰एस॰ के जर्नल के 1986 के संस्करण में उन्होंने इसमें उनकी भूमिका का उल्लेख किया है, 64 वोल्यूम में आखेट से संरक्षण में परिवर्तित रूचि को प्रकट किया जो कि सूक्ष्म संचिका में परिरक्षित थी और चरम सीमा जिसमें यह एस॰एच॰ प्रेटर की असाधारण संपादकत्व के तहत पहुँच गए थे।[62]

उनके छोटे पत्र और लेखन के दो-खंड में संकलन को 2007 में प्रकाशित किया गया, जिसका संपादन तारा गांधी द्वारा किया गया जो कि उनके अंतिम छात्रों में से एक थे।[63]

सन्दर्भ

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आत्मकथा
  • अली, सालिम (1985) द फॉल ऑफ स्पैरो. ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस. ISBN 0-19-562127-1

बाहरी कड़ियाँ

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