राम प्रसाद नौटियाल
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राम प्रसाद नौटियाल | |
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भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी व प्रथम विधानसभा सदस्य
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जन्म | 01 अगस्त 1905 कांडा (खाटली) बीरोंखाल, पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड, भारत |
मृत्यु | दिसम्बर 24, 1980 | (उम्र 75 वर्ष)
राष्ट्रीयता | भारतीय |
राम प्रसाद नौटियाल (1 अगस्त, 1905 - 24 दिसम्बर, 1980) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी तथा राजनेता थे।
आरंभिक जीवन
[संपादित करें]1 अगस्त 1905 को ग्राम - कांडा मल्ला, ब्लॉक - बीरोंखाल, जनपद - पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखंड) में गौरी दत्त नौटियाल और देवकी देवी के घर जन्मे राम प्रसाद नौटियाल उत्तराखंड में पैदा होने वाले प्रमुख स्वन्त्रता सेनानियों में से एक थे। इनके संघर्ष का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि इन्होंने दिल्ली, कलकत्ता, लाहौर आदि बड़े शहरों से लौटकर उत्तरांखंड के गढ़वाल व कुमायूं क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया और न केवल देश की स्वतंत्रता के लिए लडे बल्कि स्थानीय जनता के संघर्षों को भी आवाज दी।
इनके दो छोटे भाई थे बलिराम व कशीराम; कहा जाता है कि बलिराम नौटियाल को कराची (अब पाकिस्तान) में अध्यनरत रहने के दौरान ब्रिटिश पुलिस ने सरकार विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के लिए गिरफ़्तार किया व कई तरह की यातनाएं दी, तदुपरांत इनको मरणासन्न स्थिति में रिहा कर दिया गया। बलिराम जी इन चोटों से कभी उभर नहीं पाए व कुछ समय पश्चात युवा अवस्था में ही इनका स्वर्गवास हो गया।
विद्यालयी शिक्षा के दौरान सरोजनी नायडू के भाषण से प्रभावित होकर कई छात्रों ने स्वन्त्रता के पक्ष में नारेबाजी शुरू कर दी। राम प्रसाद उनमे से एक थे। राम प्रसाद जी को इसके लिए तीन सप्ताह के कठोर कारावास की सजा दी गयी, इतने पर भी इन्होंने अपनी नारेबाजी जारी रखी जिससे नाराज़ होकर इन्हें विद्यालय से निष्कासित कर दिया गया।
ब्रिटिश सेना में नियुक्ति
[संपादित करें]स्कूल से निष्काषित होने के बाद डर के मारे घर नहीं लौटे बल्कि वह शहरों की ओर चल दिये मेरठ पहुँचने पर वहां ब्रिटिश सेना के किसी पहाड़ी रसोइये ने शरण दी जहां कुछ वर्ष बाद रामप्रसाद सेना में भर्ती हो गए; इन्हें रिकॉर्ड कीपर बना कर बलोचिस्तान भेज दिया गया। यहाँ एक दिन तोरखान नाम का बलूच सरदार कर्नल एबोट के ऑफिस में आ धमका व उस पर हमला बोल दिया, जैसे तोरखान ने अपनी पिस्तौल से फायर किया साहसी राम प्रसाद ने उसको दबोच लिया व इस तरह कर्नल एबोट को भागने का मौका मिल गया, इससे खुश होकर कर्नल ने उन्हें घुड़सवारी की ट्रेनिंग दिलवाई व ६३ मोबाइल कोर रावलपिंडी भेज दिया।
यहाँ, युद्धाभ्यास में शामिल ब्रिटिश सेना की टुकड़ियों पर अपदस्थ रुसी ज़ार के भगोड़े सैनिको ने अचानक हमला बोल दिया व कई सैनिक मार डाले। यह युद्धाभ्यास सूखी नदी के आर-पार २/८ पंजाब रेजिमेंट व रॉयल मराठा रेजिमेंट के बीच चल रहा था। कर्नल वैली ने इनको नदी के उस पर जाकर कर्नल डेविस को हमले की खबर देने की जिम्मेदारी सौंपी। रौखड़ की लंबाई करीब डेढ़ मील थी व रूसी सेना मशीनगनों से घातक गोलीबारी कर रही थी। राम प्रसाद के दोनों साथी मारे गए परंतु वह किसी तरह कर्नल डेविस को सन्देश पहुँचाने में सफल रहे। कर्नल इनकी वीरता पर बड़े प्रसन्न हुए व इन्हें एडजुटेंट क्वार्टर मास्टर बनाकर पदोन्नति दी गयी, और लाहौर स्थानांतरण मिल गया।
लाला लाजपत राय की मृत्यु, विद्रोह का पुनर्जन्म
[संपादित करें]वर्ष 1928 की बात है, इन्ही दिनों इन्होंने लाहौर से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों में लाला जी की मृत्यु का समाचार पढ़ा, तब छपी निम्नलिखित पंक्तियों का इन पर गहरा असर पड़ा,
- मैं एक गुलाम देश में पैदा हुआ हूँ, जहाँ मुझे कोई भी मामूली पुलिस अफसर लाठियों से पीट पीट कर मौत के घाट उतार सकता है।
उस समय आर्य गैजेट के संपादक 'भीमसेन सच्चर' थे, जिनके ओजपूर्ण लेखों ने रामप्रसाद के युवा मन मस्तिष्क को झकझोर दिया; बचपन का विद्रोही पुनः जागा और रामप्रसाद ने सरकारी नौकरी छोड़कर स्वन्त्रता संग्राम में कूदने का निश्चय कर लिया।
फ़ौज से स्वैच्छिक सेवानिवृति लेने के बाद ये लाहौर में कांग्रेस के शीर्ष नेताओं डॉ॰ किचलू व डॉ॰ गोपीनाथ से मिले जिन्होंने इन्हें कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में शामिल होने के लिए कलकत्ता जाने का सुझाव दिया, इसके बाद ये सीधे कलकत्ता पहुंचे जहाँ इन्हें डॉ॰ हार्डिकर ने कांग्रेस सेवा दल में शामिल कर लिया। अधिवेशन की समाप्ति के पश्चात इन्हें कांग्रेस सेवा दल का प्रशिक्षण लेने के लिए हुगली भेज दिया गया। ट्रेनिंग पूरी करने के पश्चात इन्हें लाहौर में अन्य सेवा दलों को प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी दी गयी, जिसके लिए इन्हें लाहौर आना पड़ा।
इन्ही दिनों भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव भी लाहौर में अनवरत रूप से आया जाया करते थे, जिन्होने बाद में 'लाला जी' की मृत्यु के प्रतिशोध में ब्रिटिश पुलिस अफसर सौंडर्स की गोली मार कर हत्या दी।
इसी दौरान सौंडर्स की मौत के पश्चात क्रांतिकारियों की धर-पकड़ तेज हो गई, युवा राम प्रसाद की सरकार विरोधी गतिविधियां भी चरम पर थी। इन्हें गिरफ्तार करने के लिए वारंट जारी कर दिया गया। इनकी गिरफ्तारी का वारंट जारी होने की खबर 'पुष्पा' नामक एक छात्रा ने इन्हें गुप्त रूप से भिजवा दी, यह छात्रा D। A। V स्कूल लाहौर में कांग्रेस दल की नेता थी व वहां के प्रधानाचार्य 'छबीलदास' की भतीजी और एक ब्रिटिश C। I। D। अफसर की बेटी थी। इन्हें लाहौर छोड़ने की सलाह दी गयी और ये वहां से भागकर हिमाचल प्रदेश के चम्बा जिले में पहुचे जहाँ से इन्हें पुनः भागकर शाहपुर के एक आर्य समाज मंदिर में शरण लेनी पड़ी, यहाँ से इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया व लाहौर में जेल दिया गया।
लाहौर जेल में तरह-तरह की यातनाएं देकर इनसे सौंडर्स मर्डर काण्ड में शामिल होने की बात कबूलने के लिए बाध्य करने की कोशिश की गई, बाद में इन्हें सरकारी मुखबिर बनाने का लालच भी दिया गया, किन्तु सारी कोशिशें असफल रहने के बाद रिहा करना पड़ा।
गढ़वाल व कुमाऊं में 'सविनय अवज्ञा' आंदोलन
[संपादित करें]21 दिसम्बर 1929 को जेल से रिहा होने के बाद राम प्रसाद जी सीधे रावी नदी के किनारे चल रहे कांग्रेस के वार्षिक सम्मलेन में भाग लेने के लिए पहुँच गए। यहाँ इनको उत्तर प्रदेश (तब उत्तराखंड भी यू। पी। का हिस्सा था) से आने वाले समूह के कैंप की देख रेख में लगाया गया। यहाँ इनकी मुलाकात हरगोविन्द पन्त, 'कुमाऊं केशरी' बद्री दत्त पांडेय, विक्टर मोहन जोशी, देवी सिंह कोरिया, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, कृपाराम मिश्र 'मनहर' आदि से हुई।
बाद में इन्हें कुमांऊ के लिए सत्याग्रह दल का पर्यवेक्षक बना कर 'रानीखेत' भेज दिया गया, यहाँ पहुंचकर इन्होंने गढ़वाल व कुमाऊं मंडलों में कई सत्याग्रह कैंप चलाये व सैकड़ों कार्यकर्ताओं को देश सेवा के लिए प्रेरित किया व तैयार किया। गढ़वाल व कुमाऊं में कई प्रशिक्षण शिविर चलाने के बाद इन्होंने अपना कार्यालय कोटद्वार के निकट दुगड्डा नामक स्थान पर स्थापित किया। इस समय तक राम प्रसाद जी अपने साथियों के बीच 'कप्तान साहब' के नाम से प्रसिद्द हो चुके थे।
इन दिनों सविनय अवज्ञा आंदोलन अपने चरम पर था। गढ़वाल व कुमाऊं क्षेत्रों में भी स्वाधीनता के दीवानों की गतिविधियां बढ़ गई, जगह-जगह सभाएं की गई। जनता को स्वतंत्रता के आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित करने हेतु राम प्रसाद जी व उनके साथियों ने जनजागरण अभियान चलाया जिसके फलस्वरूप 76 मालगुजारो व थोकदारों ने अपने पदों से त्याग पत्र दे दिया व अंग्रेज सरकार के विरुद्ध लड़ाई में अपना योगदान देने लगे।
इसी दौरान वन विभाग ने सेंधीखाल व अन्य नदी के किनारे वाले गांवों के नजदीक नदियों में तार की बाड करना शुरू कर दिया जिससे गांव के पशु जंगल के चरागाहों में नहीं जा सके, इससे स्थानीय जनता का जीवन जो जल-जंगल पर ही निर्भर था भयंकर कठिनाइयों में पड़ गया, राम प्रसाद जी को इसकी खबर मिली, वे व उनके साथी रातों को चुपचाप नदी के किनारों से बाड़ उखाड़ कर नदी में फेंक देते व जनता को इसके विरुद्ध आवाज उठाने के लिए प्रेरित करते, अंत में विभाग को हार माननी पड़ी व जनता को अपना हक़ वापस मिला।
इनकी इन हरकतों से तंग आकर सरकार को इनके खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी करना पड़ा। किन्तु ये चोरी-छुपे अपने काम को अंजाम देते रहे। इसी बीच इन्हें भीलाड़ी गांव (रिखणीखाल ब्लॉक पौड़ी गढ़वाल) से गिरफ्तार कर लिया गया। इन्हें भारतीय दंड संहिता की धारा 208 के अंतर्गत दो वर्ष के कठोर कारावास की सजा हुई व बताया गया कि तीन और मुक़दमे बाद में लगाए जायेंगें। जिनमें से एक कर्नल इबट्सन पर जानलेवा हमला करने का था।
मैं ब्रिटिश नागरिक नहीं हूँ
[संपादित करें]एक बार दुगड्डा में प्रभात फेरी से लौटते समय चुनाधार इलाके में अचानक कर्नल इबाटसन व स्थानीय तहसीलदार 50-60 जवानों के साथ आ धमके, गंगा सिंह त्यागी नामक एक बालक जो कक्षा 9 का छात्र था अपने हाथ में तिरंगा लिए हुए जोर-जोर से आजादी के नारे लगा रहा था उस पर कर्नल साहब बिगड़ गए व अपने घोड़े पर बैठकर ही कोड़ों की बरसात कर दी, बालक गंगा बेहोश होकर गिर पड़ा, इब्ट्सन को इस पर भी चैन नहीं आया; वह धोड़े से उतरा व बेहोश बालक को जोर से लात मारने लगा, इस पर नौटियाल जी को बहुत क्रोध आया उन्होंने कर्नल को उसके कॉलर से पकड़ा व उठा कर सड़क के नीचे पहाड़ी में फ़ेंक दिया , संयोगवश इब्ट्सन किसी पेड़ की ठूंठ पर जा अटका और मौत से बच गया। राम प्रसाद जी के पीछे अंग्रेज अफसर भागे किन्तु वे चूनाधार के जंगलो में गायब हो गए।
इस मुक़दमे की सुनवाई के लिए इन्हें कोटद्वार लाया गया, जहाँ इन्हें जज गिल साहब के सामने पेश होना पड़ा, इन्हें उनके पास शरीर पर बेड़ियाँ डाल कर ले जाया गया, जज ने तुरंत आदेश दिया की इनकी बेड़ियाँ खोल दी जाय। इब्ट्सन के वकील ने तहरीर पढ़ना आरम्भ किया, तहरीर पूरी हुई तो जज ने राम प्रसाद जी से कहा, "तुम्हे कुछ कहना है"
राम प्रसाद बोले, "जब इब्ट्सन खुद कोर्ट में मौजूद है तो वे क्यों नहीं कटघरे में आकर घटना का विवरण देतें है। "
इस पर जज ने इब्ट्सन की ओर देखा, आखिर इब्ट्सन को कटघरे में आना पड़ा, उसने सब कुछ सच बताया।
जज ने पुनः राम प्रसाद जी को कहा, "अब आपको कुछ कहना है?"
राम प्रसाद जानबूझकर जोर-जोर से बोले,
- मैं अपने आप को ब्रिटिश नागरिक नहीं मानता। अतः इस कोर्ट में कुछ भी कहना मेरे लिए अपमानजनक होगा।
यह सुनकर जज चौंक गए व बोले,
"आप कोर्ट का अपमान कर रहें है, इसके लिए आप पर अवमानना का अभियोग चलाया जा सकता है। "
बाद में कोर्ट ने अपनी सजा सुनाई व इन्हें बरेली जेल भेज दिया गया।
गवर्नर मैलकम हैली को काला झंडा दिखाने की घटना
[संपादित करें]वर्ष 1932 की बात है, तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर मैलकॉम हेली ( दिनांक 10-08-1928 से 05-12-1934 तक संयुक्त प्रांत के गवर्नर) का पौड़ी दौरा निश्चित हुआ, इस संबंध में खबर मिलते ही रामप्रसाद और साथी क्रांतिकारियों ने योजना बनाई कि गवर्नर हेली को काले झंडे दिखाए जाएँ और उसका बायकॉट किया जाए। सितंबर, 1932 के प्रथम सप्ताह में दुग्गड़ा स्थित रामप्रसाद के भूमिगत कार्यालय में क्रांतिकारियों की बैठक हुई। चर्चा में तय हुआ कि पौड़ी जिला मुख्यालय में ज्यादा व्यक्तियों का प्रवेश संभव नहीं हो सकेगा और एक-दो से अधिक लोगों के अंदर जाने का प्रयास करने पर प्रशासन को शक भी हो सकता है तथा योजना असफल भी हो सकती है। अंत में इस काम को अंजाम देने के लिए जोशीले और अनुभवी जयानंद भारतीय को चुना गया, उन्होंने तुरंत सहमति दे दी। 5 सितंबर 1932 को जयानंद को लेकर रामप्रसाद पौड़ी पहुंचे, जहां वे एडवोकेट कोतवाल सिंह नेगी के घर ठहरे। यहाँ अलग-अलग करके लाया गया तिरंगा झण्डा जोड़कर तैयार किया गया और काले कपड़े के टुकड़े भी साथ रखे गए। 6 सितंबर 1932 को सुबह होते ही रामप्रसाद, जयानंद और साथी जिला मुख्यालय के निकट पहुंचे जहां गवर्नर हेली के सम्मान में अंग्रेज़ समर्थक ‘अमन सभा’ और कुछ प्रेस संगठनों को आमंत्रित कर एक बैठक का आयोजन होना था। योजना के अनुसार भेष बदलकर गए जयानंद और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा चुपचाप बैठक में शामिल हो गए और जैसे ही मैलकॉम हेली के संबोधन का समय आया वह तिरंगा लहराते हुए 'वन्देमातरम!', ‘काँग्रेस जिंदाबाद!’, ‘अमन सभा मुर्दाबाद!’ के नारे लगाते हुए मंच की ओर बढ़ गए। इस बीच रामप्रसाद व साथी ‘गवर्नर गो बैक!' के नारे के साथ काले झंडे लहराकर पुलिस का ध्यान भटकाने में कामियाब रहे। ‘भारत माता की जय!' की जयजयकार करते हुए जयानंद को मंच पर चढ़ने का अवसर मिल गया। मंच पर चढ़ते समय उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। हेली को बचाने के चक्कर में अधिकतर पुलिस वाले मंच की ओर दौड़ पड़े जिससे योजना अनुसार रामप्रसाद व साथी क्रांतिकारी को बचकर निकलने का अवसर मिल गया। इस समय तक रामप्रसाद के चमोली और पौड़ी मण्डल के लगभग 664 साथी जेल जा चुके थे। इस सबके परिवारों की देखभाल का दायित्व रामप्रसाद और अन्य साथियों के कंधों पर था। अंत में रामप्रसाद भी जयानंद सहित अन्य क्रांतिकारियों के परिवारों तक सहायता पहुंचाने के क्रम में पकड़े गए और 200 रुपए के आर्थिक दंड के साथ एक वर्ष के कठोर कारावास की सजा मिली। इस घटना को तत्कालीन सरकारी दस्तावेजों में भी दर्ज किया गया है। इस घटना के प्रभाव को कम करने और ऊपरी अधिकारियों के समक्ष किरकिरी से बचने के लिए काले झंडे लहराये जाने और कुछ क्रांतिकारियों के पुलिस को चकमा देकर बच निकलने के वृतांत को स्थानीय अंग्रेज़ प्रशासन ने रफादफा कर दिया गया। यद्यपि, यह आख्यान पौड़ी कांड के नाम से खूब चर्चित रहा।
लैंसडौन को स्वतंत्र घोषित करके, प्रशासन को जनता के अधीन करने की योजना
[संपादित करें]1942 का समय था, गाँधी जी “भारत छोडो ” आंदोलन का श्रीगणेश कर चुके थे । “करो या मरो ” की ललकारों से भारत वर्ष का कण-कण गूंज रहा था । देश भर में कई क्रन्तिकारी वीरों ने जगह-जगह सरकारी व्यस्था को उखाड़ फेंक जनता का नियंत्रण स्थापित कर दिया था। इसी बीच ‘ढोरीं डबरालसयुं ’ में राम प्रसाद व उनके साथियों की एक मीटिंग हुई जिसमे 500 से ज्यादा सदस्य इक्कट्ठा हो गए थे।
योजना बनाई गई कि लैंसडौन कोर्ट पर कब्ज़ा किया जाय व प्रशासन को जनता के अधीन कर दिया जाय। इसके लिए चार समूह बनाये गए जो कि गढ़वाल के अलग-अलग क्षेत्रों का प्रतिनित्व करते थे। हर समूह को अपने-अपने क्षेत्रों में और अधिक लोगों को जोड़ने व सक्रिय हो जाने का निर्देश दिया गया। दूसरी बैठक चौबट्टाखाल के पास जंगलों में हुई जिसमे करीब 1000 साथियों ने शिरकत की, इसमें 21 सदस्यों की एक मुख्य कार्यकारणी बनाने का निर्णय लिया गया, इस समिति में राम प्रसाद स्वयं भी थे, इसके अन्य प्रमुख सदस्य बैरिस्टर चंद्र सिंह रावत, सदानन्द शास्त्री, थोकदार नारायण सिंह, छवाण सिंह नेगी व गोकुल सिंह नेगी आदि थे।
राम प्रसाद ने स्वयं आगे बढ़कर कर्णप्रयाग में थोकदार देवानंद और जीवानंद खंडूरी की सहायता से P। W। D के स्टोर का ताला तोड़कर 7 पेटी डायनामाइट निकाली व पैदल ही अत्यधिक भारी पेटियां कंधे पर रखकर कई किलोमीटर दूर डुमेला तल्ला में पहुंचाईं। इसके बाद यहाँ से इन्हें पूर्व में गठित चारों कमानो में भिजवाने की व्यवस्था की।
दुर्भाग्यवश उनकी महत्वपूर्ण बैठकों में मंगतराम खंतवाल भी मौजूद थे जिन्होंने सारी योजना अंग्रेज प्रशासन के समर्थक मालगुजार गोविन्द सिंह को बता दी। गोविन्द सिंह ने लैंसडौन डाक बंगले में जाकर ब्रिटिश अफसर डी। सी। फेर्नांडीस को सारी सूचना दे दी। योजना इस प्रकार थी कि, 27 अगस्त 1942 को हजारों की संख्या में जनता व क्रांतिकारियों की भीड़ लैंसडौन पर धावा बोलेगी, सबसे पहले एक टीम लैंसडौन को जोड़ने वाली टेलीफोन लाइन्स काट देगी। लैंसडौन अदालत पर कब्ज़ा किया जायेगा, S। D। M अम्बादत्त को D। M। घोषित कर दिया जायेगा व ट्रेज़री को कब्जे में लेकर प्रशासन को जनता के अधीन कर दिया जायेगा। व्यवस्था के लिए एक कार्यपालक समिति बनाई जाएगी जिसके संयोजक प्रताप सिंह नेगी होंगे।
योजना के लीक हो जाने की खबर चिंतामणि बलोधी लेकर आये व बताया कि फेर्नांडीस ने लैंसडौन जाने वाले सारे मार्गों को सील करने का आदेश दे दिया है। चौमासू पुल व बांधर पुल पर फौज का कड़ा पहरा लगा दिया गया और क्षेत्र के सारे लाइसेंसी हथियार धारकों को तत्काल हाजिर होने का निर्देश जारी किया गया।
इसपर भी राम प्रसाद जी व साथियों ने योजना पर काम जारी रखा, 27 अगस्त 1942 को सारे विद्यालयों को बंद करवा दिया गया 70 लोगों के एक दल के साथ राम प्रसाद आगे बढ़े , करीब 50 सदस्यों के साथ छवाण सिंह नेगी धूरा चुंगी के निकट टेलीफ़ोन तार काटने के लिये चल पड़े, टेलीफोन तार काटते समय बिजली की तार के संपर्क में आने से उनके एक साथी केशर सिंह को भयंकर झटका लगा व वह पहाड़ी से नीचे गिर गए।
ब्रिटिश अधिकारियों ने छापामारी शुरू कर दी । हज़ारों कार्यकर्ता पकडे गए। रात के गुप्प अँधेरे में सबके-सब पागलों की तरह अपने मृत साथी का शव ढूंढने में लग गए , राम प्रसाद के पास शव लाया गया उन्होंने रात में ही दाह संस्कार करना जरुरी समझा व स्वयं बलिदानी केशर सिंह का शव कंधे पर उठा कर शिरुबाड़ी पहुंचे; ‘बन्दे मातरम ’ के पवित्र घोष के साथ उनको अंतिम विदाई दी गयी।
जगह-जगह से हजारों लोगों की भीड़ लैंसडौन की तरफ बढ़ रही थी , प्रशासन व जनता के बीच भिड़ंत शुरू हो चुकी थी; किन्तुं अंग्रेज फ़ौज की घातक हथियारों के साथ अग्रिम मौजूदगी का अहसास राम प्रसाद को था, उन्होंने रक्तपात का कोई लाभ न जानकार विभिन्न स्थानों में आगे बढ़ चुके जन समूहों को रुकने को कहा, तत्काल तौर से ठहरने व फिर वापस लौटने की व्यवथा करवाई। इस पूरी कवायद में वे कई दिन तक जान पर खेलकर भूखे-प्यासे जंगलों से होते हुए इधर-उधर भागते रहे।
योजना असफल रही , किन्तु इससे स्थानीय अंग्रेज प्रशासन बुरी तरह घबरा गया व भड़क गया। इसके बाद जनता पर अकथनीय अत्याचार हुए। खबरे मिली की जिन घरों के मर्द घर नहीं पहुँच पाए उन घरों की महिलाओं के साथ घरों में घुस-घुस कर पटवारी, कानूनगोय तथा अन्य सरकारी अफसर बदसुलूकी तक करने लग गए। जनता बड़ी डरी हुई थी व कोई भी सामने आने को तैयार न था। इस सब के प्रतिशोध में कुमरथा गांव के पास एक अंग्रेज अधिकारी को मारकर नदी में फेंक दिया गया। इसके लिए पुलिस ने कांतिचंद उनियाल को दोषी ठहराया, पुलिस से बचने के लिए वह बदरीनाथ की तरफ भयानक व बर्फीले जगलों में भाग गए जहाँ भूख-प्यास व ठण्ड से उनकी मृत्यु हो गयी।
गढ़वाल का बारदोली
[संपादित करें]लैंसडौन को स्वतंत्र करने की योजना में सफलता न मिलने और इस षड्यंत्र के मुख्य कर्ता-धर्ता के रूप में सामने आने के बाद दुग्गड़ा में भूमिगत रह पाना कठिन था। इसलिए रामप्रसाद ने दक्षिण गढ़वाल में अपने दूसरे ठिकाने गुजडू-पट्टी की ओर रुख किया। यह दुग्गड़ा के बाद गढ़वाल में सत्याग्रहियों और स्वयंसेवकों की भर्ती का दूसरा सबसे बड़ा केंद्र बनकर उभरा था। अंग्रेज़ सरकार ने सत्याग्रहियों की गतिविधियों को रोकने और क्षेत्र में भय पैदा करने के उद्देश्य से राजस्व की वसूली बढ़ा दी और इसे सख्ती से लागू करना आरंभ कर दिया। इसके विरोध में रामप्रसाद ने स्थानीय किसानों और अन्य प्रबुद्धजनों को एकत्र किया और वर्ष 1942 के उत्तरार्ध में एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया, जिसे कुचलने के लिए राजस्व और पुलिस विभाग को तमाम गिरफ्तारियाँ करनी पड़ी। किसानों के इसी आंदोलन को ‘गुजडू आंदोलन’ अथवा ‘गढ़वाल का बारदोली’ कहा जाता है। संयोगवश गुजडू पट्टी का गाँव ‘बरात तल्ला’ रामप्रसाद नौटियाल का ससुराल और उनकी जीवन-संगिनी ‘श्यामा देवी’ का मैत भी था। इस आंदोलन के दौरान स्थानीय जनता को लामबंद करने में थानसिंह रावत और शीशराम पोखरियाल (श्यामा देवी के अग्रज) का भी बड़ा योगदान रहा। 8 नवम्बर 1942 को भैरव दत्त धूलिया को आंदोलनकारियों की सहायता करने के अपराध में गिरफ्तार किया गया।
मरणासन्न पिता व पुत्र को छोड़कर जेल जाना
[संपादित करें]अपने संघर्ष को जारी रखते हुए राम प्रसाद जंगलों में छिप-छिप कर अंग्रेज सरकार के विरुद्ध जनता को जागरूक करते व बीच बीच में बैठकें कर के स्वतंत्रता की अलख जगाने का प्रयास करते, उस समय वह 'क्वालागाड़' के जंगलों में सक्रिय थे। इसी बीच उन्हें खबर दी गई की उनके पिताजी का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया है व संभवतया वह अब ज्यादा दिन न बच पाएं। राम प्रसाद ने खबर की सत्यता जानने के लिए अपने एक साथी को गांव भेजा तो पता चला कि बात सच है, वह किसी तरह बचते बचाते अपने गांव पहुच गए। कुछ दिन से भूखे प्यासे थे, घर में बचा-खुचा 'फाणु-भात' खाया, माता जी व पत्नी से मिले। पिता जी उस समय मरणासन्न अवस्था में लेटे हुए थे उनका मुख चादर से ढका हुआ था, राम प्रसाद जी ने उनके चरण छुए व माता जी से जाने की आज्ञा मांगी। माता जी ने कहा,
- बेटा तुम्हारा पुत्र भी बहुत बीमार है, तुम कुछ दिन रुक जाओ।
उन्होंने माता जी ढाढस बंधाने का प्रयास किया। माता जी पुत्र के मन को जानती थीं अतः कुछ न बोलीं, किन्तु आये हुए रिश्तेदारों ने कहा की अब शायद पिता जी सुबह तक भी जीवित न रहें, ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते ये उनका धर्म है की वह अंतिम कर्म को पूरा करें। हालांकि, राम प्रसाद को रुकना पड़ा, उन्होंने स्पष्ट कर किया की वे सुबह होते ही निकल पड़ेंगे।
रात को दो बजे जब वे जागे और जैसे ही उन्होंने अंगीठी जलाई तो देखा कि अंग्रेज फौज के लगभग दो सौ जवान मकान पर घेरा डाले हुए हैं। कमांडिंग अफसर बोला कि रात को नौटियाल जी व उनके परिवार को न छेड़ा जाय किन्तु सुबह होते ही उन्हें समर्पण करना होगा। पूरा परिवार घबरा गया, माता जी ने उन्हें ऊपर वाले कमरे में बंद करके बाहर से ताला लगा दिया व कहा की वह रात को ही जा चुकें है। इस पर भी तहसीलदार चन्दन सिंह सीढ़ियों पर चढ़ गया व ललकारें मारने लगा। । ।
"हमने अब तुम्हे गिरफ्तार कर दिया है, तुम समर्पण कर दो"
तहसीलदर की इस धृष्टता पर राम प्रसाद को बड़ा क्रोध आया, उन्होंने दरवाजे पर जोर से लात मारी व दरवाजा तोड़कर बाहर निकले, तहसीलदार को गले से पकड़ा और छज्जे से नीचे फ़ेंक दिया, तहसीलदार ने नीचे से फायर कर दिया, राम प्रसाद ने भी बचाव करते हुए अपनी पिस्तौल से तहसीलदार पर फायर झोंक दी, अँधेरे की वजह से वह बच निकला, फायरिंग की आवाज से बीमार बच्चा बुरी तरह घबरा गया व मंडुए के खेतों में जाकर छुप गया। घर में विलाप प्रलाप का माहौल हो गया। अंग्रेज अफसर भी नौटियाल के तेवर देखकर घबरा गए। रक्तपात न हो अतः निश्चय किया गया कि अब सुबह ही उन्हें गिरफ्तार किया जायेगा।
सुबह गिरफ्तारी देने के बाद उनकी विदाई के लिए जनता ढोल-दमाऊ लेकर आयी, रणसिंघा की विजयी हुंकार के साथ उन्हें विदा किया गया। गांव की सीमा पार होते ही बोले अब मैं बिना सवारी के नहीं जाऊँगा मैं कोई मामूली कैदी नहीं हूँ, ऑफिसर्स जानते थे इनके साथ बहस करना बेकार है, घोडा व पालकी मंगाई गई राम प्रसाद जी ने एक योद्धा की तरह घोड़े पर ही जाना स्वीकार किया। राम प्रसाद जी मरणासन्न पिता व पुत्र को छोड़कर जाते समय भी जनता को मार्तृभूमि के लिए हंस-हंस कर पीड़ा सहने का सन्देश देकर गए। बाद में खबर मिली की बीमार पिता व पुत्र दोनों का देहावसान हो गया।
इसके बाद इन पर कई धाराओं के अंतर्गत केस चलाये गए व सजा काटने के लिए बरेली सेंट्रल जेल भेज दिया गया। यहाँ इनको रफ़ी अहमद किदवई, महावीर त्यागी व कृष्णा दत्त पालीवाल आदि कई प्रमुख सेनानियों के साथ रखा गया। बाद में इनके तेवर देखकर इन्हें तन्हाई (seclusion) में रखा गया। यहाँ से इन्हें 14th July 1945 को रिहा कर दिया गया।
गरीबी व छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष
[संपादित करें]राम प्रसाद बचपन से ही विद्रोही प्रकृति के थे। उन्होंने छुआछूत और ऊंचनीच को कभी स्वीकार नहीं किया। रामप्रसाद ने स्वतन्त्रता आंदोलन के साथ-साथ दलित उद्धार , छुआ-छूत उन्मूलन व डोला-पालकी जैसी पुरानी परम्पराओं को समाप्त करने के लिए भी व्यापक जन-जागरण के कार्यक्रम चलाये। जैसे-जैसे स्वतन्त्रता आंदोलन चरम पर पहुंचा अग्रेज़ सरकार ने जाति विभाजन को हवा देकर इसमें फूट डालने के प्रयास और तेज कर दिए। अंग्रेजों की इस चाल को भाँपकर वर्ष 1945 में जेल से रिहा होने के बाद रामप्रसाद और साथियों ने इस संबंध में अपने प्रयास और भी तेज कर दिये। जनता ने उनके प्रयासों को हाथों-हाथ लिया और अग्रजों की चाल विफल रही। इस कार्य में उनके पूर्व सहयोगियों का समर्थन और पूर्व में डोला-पालकी आंदोलन को लेकर किए गए रामप्रसाद के प्रयास काम आए। छुआ-छूत को कप्तान नौटियाल कभी नहीं मानते थे, इसका स्पष्ट उदाहरण उनके साथियों में सभी वर्गों के प्रतिनिधत्व की मौजूदगी से मिलता है।
उन्होंने व उनके साथियों ने जब अवसर रहा तब स्थानीय हरिजनों के घरों शरण ली, भोजन किया व रास्ते में ही रात पड़ जाने पर उनकी ही छतों के नीचे ही रात बिताई। यद्यपि उन्हें जानने वाले इन्हें आदर से पंडित जी कह कर भी बुलाते थे, किन्तु वह कप्तान कहलाना अधिक पसंद करते थे।
जब जाति विभाजन की चाल विफल हुई तो अंग्रेजों ने राशन-पानी की आपूर्ति में बाधा डालकर स्थानीय जनता को सबक सिखाने की सोची। जनता त्राहि-त्राहि करने लगी। रामप्रसाद व साथियों ने इसकी तरकीब सोची और वर्ष 1946 के आते-आते दुगड्डा में एक विशाल सम्मलेन आयोजित किया गया , जिसमे गोविन्द बल्लभ पन्त , नरदेव सिंह शास्त्री , बद्री दत्त पांडेय , काशीपुर नरेश कुंवर आनंद सिंह आदि प्रमुख हस्तियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में क्षेत्र में अकाल की स्थिति पर चिंता प्रकट की गयी, जमाखोरी पर लगाम लगाम के लिए प्रशासन के ईमानदार ऑफिसर्स के साथ मिलकर करीब 52 समूह खोले गए, इसके बाद राम प्रसाद नौटियाल व साथियों ने अंग्रेज समर्थक बनियों को खूब आड़े हाथों लिया उनका वर्चस्व समाप्त कर स्थानीय छोटे व मंझोले व्यापारियों के लिए बाज़ार में प्रतिभागिता का रास्ता खोल दिया , जिससे तत्कालीन अकाल से त्रस्त जनता को कुछ राहत मिली।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद
[संपादित करें]स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी इन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा व शीर्ष नेतृत्व के साथ कंधे से कंधा मिलाकर उत्तराखंड के दुर्गम किन्तु सामरिक तौर से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में काम किया। गोविन्द बल्लभ पन्त इन्हें "लोहा" कहा करते थे जिससे 'समय आने पर हथौड़ा बनाया जा सकता है तो बन्दूक भी बनाई जा सकती है'। डॉ हरदयाल पन्त जी ने इन्हें प्रान्तीय सेवा दाल का आर्गेनाइजर नियुक्त किया, जहाँ इनकी देख रेख में 36 चौकियां, 460 राइफल्स, 8 मशीनगन व 50000 कारतूस रहते थे।
इसके बाद इन्हें मैकमोहन रेखा का निरीक्षण करने आये हुए दल का गाइड बनाकर चीन बॉर्डर पर भेज दिया गया, वहां से इनका दल 11 नवम्बर 1949 को लौटा। तत्पश्चात इन्होंने कई महत्वपूर्ण सुरक्षा क्षेत्रों में अपना योगदान दिया, 1950 आते-आते राम प्रसाद मन बना लिया कि अब वह अपने क्षेत्र की जनता के बीच रह कर ही कार्य करेंगे। 1951 के असेंबली चुनाव में लैंसडौन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का विचार मन में आया व बात शीर्ष नेतृत्व तक पहुंचाई गयी।
गोविन्द बल्लभ पन्त ने बात यह कह कर टाल दी कि वे सरकार के लिए कितने उपयोगी हैं ये वह नहीं जानते। राम प्रसाद अब निश्चय कर चुके थे, उन्होंने कांग्रेस मुखयालय में जाकर शीर्ष नेतृत्व के साथ अपॉइंटमेंट का फॉर्म भरा, एक महीने बाद वे नेहरू जी के पास पहुँच गए। कमरे में नेहरू जी , पटेल जी व पन्त जी बैठे थे । नेहरू जी कप्तान को देखते ही बोले, "बताइए कप्तान नौटियाल, क्या कहना है!", राम प्रसाद ने स्पष्ट कहा, “मुझे टिकट चाहिए”
नेहरू जी बोले , “पन्त जी नहीं मानते...। ”
मुलाकात समाप्त हुई , राम प्रसाद लौट गए ; बाद में पता चला कि टिकट दे दी गयी है। तत्पश्चात वह सफलतापूर्वक दो बार भारतीय राष्टीय कांग्रेस के टिकट से लैंसडौन सीट से विधायक चुने गए।
लैंसडाउन विधानसभा से विधायक के रूप में
[संपादित करें]लैंसडाउन विधान सभा क्षेत्र से अपने दो कार्यकालों में कप्तान नौटियाल ने ‘सड़क मार्गों ’, ‘पेयजल योजनाओं ’ व ‘सहकारी वित्तीय संस्थाओं ’ को प्राथमिकता दी। गढ़वाल व कुमायूं को देश की मुख्यधारा से पूर्ण रूप से जोड़ने का महत्व व चीन बॉर्डर से जुड़ा हुआ क्षेत्र होने के कारण इसके रणनीतिक तौर से महत्वपूर्ण स्थान होने का आभास उन्हें पहले से ही था, अतः उनकी पहली प्राथमिकता एक व्यापक सड़क जाल बिछाने की थी। इनमे से प्रमुख हैं-
राम नगर - मरचूला - बीरोंखाल - थलीसैण मोटर मार्ग और डेरियाखाल - रिखणीखाल – बीरोंखाल मोटर मार्ग :-
रामनगर-बीरोंखाल मोटर मार्ग को उन्होंने जनता के सहयोग से व श्रम दान द्वारा पूरा करवाया। सड़क मार्ग तैयार होने के बाद सबसे बड़ी समस्या यह थी की उनके पास कोई गाड़ियां नहीं थी , इसके लिए उन्होंने जगह-जगह जाकर बैठकें की, कोआपरेटिव सोसाइटीज़ का गठन करके जनता से शेयर्स के रूप में धन इकठ्ठा करवाया व तब जाकर दो सेकंड हैण्ड बस ख़रीदी । आज उनके द्वारा स्वीकृत कराये गए सड़क मार्गों का बड़ा हिस्सा “राष्ट्रीय राज मार्गों ” से जुड़ा हुआ है।
1956 में इन्होंने ‘यूजर्स ट्रांसपोर्ट सोसाइटी लिमिटेड’ की नींव रखी व अपने दूसरे कार्यकाल के आरम्भ में ही इसकी स्थापना कर दी। कप्तान नौटियाल के ‘यूजर्स ट्रांसपोर्ट’ के अध्यक्ष रहते कंपनी के पास 24 बसें हो गयी थी जिन्हें गढ़वाल व कुमाऊं के विभिन्न रुट्स पर चलाया जाता था।
- पेयजल योजनाएं
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हिमालय के निचले क्षेत्रों में बसे गांवों में पीने के पानी की बड़ी भयंकर समस्या होती है, जल सम्पन्न प्रदेश होने के बाबजूद भी आज भी कई गांवों में पीने का पानी उपलब्ध नहीं है। राम प्रसाद ने इस समस्या को समझा व कई पेयजल योजनाएं मंजूर करवाईं। इनमे से एक महत्वपूर्ण व प्रसिद्द योजना ‘डालागांव पेयजल परियोजना’ के नाम से जानी जाती है। इस परियोजना के तहत एक ही बार में करीब एक दर्जन से भी ज्यादा गांवों को पीने का स्वच्छ पानी पाइप लाइन्स के जरिये पहुँचाया गया।
- कोआपरेटिव बैंक्स की स्थापना
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रामप्रसाद न केवल एक निर्भीक क्रांतिकारी थे बल्कि एक दूरदर्शी नायक भी थे उन्होंने 1950 के दौर में ही ‘वित्तीय समावेश’ के महत्व को समझ लिया था, इसके लिए उन्होंने गढ़वाल व कुमाऊं में कई कोआपरेटिव बैंक्स खुलवाए। इनमे गढ़वाल क्षेत्र के लैंसडाउन, बीरोंखाल व नौगांवखाल में स्थापित कोआपरेटिव बैंक्स प्रमुख है। कई कोआपरेटिव सोसाइटीज की स्थापना व इनके सुचारू संचालन के लिए इन्होंने जनता के बीच जाकर वित्तीय जागरूकता उत्पन्न की व छोटी-छोटी कीमत के शेयर्स चलाये, सबसे पहले खुद शेयर खरीदे व जनता को हिस्सेदार बनाकर क्षेत्र के वित्तीय सशक्तीकरण का दूरदर्शी कार्य करने का प्रयास किया।
मृत्यु
[संपादित करें]अपने विद्रोही तेवरों के कारण वह सत्तासीन नेताओं के साथ असहज महसूस करने लगे। वह सत्ता नहीं जनता के बीच में कार्य करने वाले व्यक्ति थे, जनता के लिए कार्य करने हेतु ही वह सरकार द्वारा दिए गए सुनहरे अवसरों को छोड़कर चुनावों में सम्मलित हुए व अपने दूरदर्शी नायक होने का परिचय सड़क मार्गों, पेयजल योजनाओं व वित्तीय संस्थाओं की स्थापना करवा कर दिया। धीरे-धीरे रसातल में जाती सक्रिय राजनीति से स्वयं को अलग कर अपने अंतिम दिन कोटद्वार में एकांत बिताए, तत्पश्चात 24 दिसंबर 1980 को इलाज के दौरान लखनऊ में अंतिम सांस ली।