मानववाद
यह लेख मुख्य रूप से अथवा पूर्णतया एक ही स्रोत पर निर्भर करता है। कृपया इस लेख में उचित संदर्भ डालकर इसे बेहतर बनाने में मदद करें। (दिसम्बर 2020) |
मानववाद या मनुष्यवाद दर्शनशास्त्र में उस विचारधारा को कहते हैं जो मनुष्यों के मूल्यों और उन से सम्बंधित मसलों पर ध्यान देती है। अक्सर मानववाद में धार्मिक दृष्टिकोणों और अलौकिक विचार-पद्धतियों को हीन समझा जाता है और तर्कशक्ति, न्यायिक सिद्धांतों और आचारनीति (ऍथ़िक्स) पर ज़ोर होता है।[1] मानववाद की एक "धार्मिक मानववाद" नाम की शाखा भी है, जो धार्मिक विचारों को मानववाद में जगह देने का प्रयत्न करती है।
परिचय
[संपादित करें]मानववाद भिन्न रूपों में विश्व की हर प्रमुख सभ्यता में पाया गया है। भारत में १००० ईसापूर्व में चार्वाक दर्शन की विचारधारा में धार्मिक विचारों से हटकर मनुष्यों के विवेक और तर्कशक्ति पर ज़ोर दिया गया। चीन , प्राचीन यूनान और अन्य संस्कृतियों में भी मानववादी मिलते हैं। आधुनिक युग में कार्ल सेगन जैसे कई वैज्ञानिक मानववाद से जुड़े हुए रहे हैं।
मानववाद की अवधारणा का प्रारंभिक रूप से उस विचारधारा से संबंध है जिसकी दृष्टि व्यक्ति की स्वायत्तता पर केंद्रित है। मानववाद शब्द के कई अर्थ हैं। सामान्यतः यह एक सिद्धांत है जिसके अनुसार “मानव मानवीय कर्म का अंतिम प्रस्थान बिन्दु और संदर्भ बिंदु है।” (तजवेतन टोडोराव)। मानववाद शब्द पहली बार संभवतः फ्रासीसी विचारक मोंटेन के लेखन में आया है जहाँ उसने अपने चिंतन को धर्मशास्त्रियों के चिंतन के विपरीत प्रस्तुत किया। मानववाद, यूरोप में पुनर्जागरण एवं ज्ञानोदय का परिणाम था और इसकी पूर्ण अभिव्यक्ति अमरिकी और फ्रांसीसी क्रांतियों के दौरान हुई।
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने मानवावाद को इस प्रकार परिभाषित किया हैः
- एक दृष्टिकोण अथवा वैचारिक व्यवस्था जिसका संबंध मानव से है, न कि दैवी अथवा अलौकिक पदार्थों से। मानववाद एक विश्वास अथवा दृष्टिकोण है जो सामान्य मानवीय आवश्यकताओं पर बल देता है और मानवीय समस्याओं के समाधान के लिए केवल तर्कसंगत समाधान तलाशता है और मानव को उत्तरदायी एवं प्रगतिशील बुद्धिजीवी मानता है।
मानववादी, मानव की क्षमता में विश्वास रखते हैं। उनका कहना है कि मानव में बहुत सामर्थ्य है और यदि उसे विकास का अवसर मिले और उसका पूर्ण विकास हो जाए तो मानव बहुत ऊंचा उठ सकता है। मानववादियों का मानव की अच्छी प्रकृति में विश्वास है। आंबेडकर, गांधी, रसल और टॉलस्टाय बीसवीं सदी के महान मानववादी थे। अपने प्रारंभिक लेखन में मार्क्स भी मानववादी था। मार्क्स की प्रारंभिक कृतियों में 'इकोनॉमिक एंड फिलास्फिकल मैन्यूस्क्रिप्ट्स' (1842) सम्मिलित है जो 1848 में प्रकाशित कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो से पूर्व लिखी गई थी। एम.एन राय भी मानववादी थे। उनकी वैचारिक यात्रा लंबी थी। उसने अपनी यात्रा मार्क्सवाद से प्रारंभ की और उग्र मानववाद पर समाप्त की।
मध्ययुग में, मानव को, ईश्वर के अधीन बना दिया गया था। उसकी पहुंच प्रकृति के गुप्त रहस्यों तक थी परंतु अंतिम विश्लेषण में पूर्णतः ईश्वर के प्रति समर्पित थे। इस परिप्रेक्ष्य में पुनर्जागरण और ज्ञानोदय से बदलाव आया। मनुष्य इस सृष्टि का केन्द्र बन गया। अब उसका स्वतंत्रता से इच्छा करना और स्वयं अपना स्वामी बनना संभव होने लगा था उसके पास परंपराओं और ईश्वर के आदेशों के स्थान पर अपने और अपने साथियों के लिए जीवन चुनने की स्वतंत्रता थी। इसका अभिप्रायः यह था कि अब उसके पास अपना घर और अपना व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता थी। धार्मिक ग्रंथ व परंपराएं अब उसके लिए गौण थी यद्यपि धर्म अभी भी अपनी भूमिका निभाता रहा; तथापि महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि मनुष्य को सत्य और असत्य, ठीक और गलत, न्याय और अन्याय तथा अच्छे और बुरे में भेद करने का विवेकपूर्ण अधिकार मिल गया।
मानववादी चिंतन में मनुष्य अपने निजी जीवन में स्वतंत्र होता है। वह न केवल अद्वितीय है, अपितु भिन्न भी है जो कभी दूसरा नहीं हो सकता। नैतिक जीवन के नियम निर्धारण के लिए उसने अंतनिर्हित प्राकृतिक अधिकार भी प्राप्त किए। बाद में इसके साथ एक अन्य पक्ष और जुड़ा जब मानव ने सार्वजनिक क्षेत्र में भी स्वतंत्रता का दावा किया और राजनीतिक शासन चुनने के अपने अधिकार पर बल दिया। इस प्रकार लोकतंत्र, सरकार का एकमात्र वैध रूप बन गया। यह आंदोलन 18वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में, अमरीकी और फ्रांसीसी क्रांतियों के दौरान, पूरे जोर पर था। दोनों क्रांतियां इस विचार से प्रेरित थीं कि कोई भी सत्ता/शक्ति, भले ही वह परंपरा,परिवार अथवा राज्य हो, मनुष्य की इच्छा से श्रेष्ठतर नहीं हो सकती।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]सन्दर्भ
[संपादित करें]- ↑ Humanism: beliefs and practices[मृत कड़ियाँ], Jeaneane D. Fowler, Sussex Academic Press, 1999, ISBN 978-1-898723-70-7.