सामग्री पर जाएँ

गुरु-शिष्य परम्परा

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
शिष्यों के साथ आदि शंकराचार्य (राजा रवि वर्मा द्वारा 1904 में चित्रित)

भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही वह परम्परा है जिसमें गुरु अपना सम्पूर्ण ज्ञान शिष्य को प्रदान करने का प्रयत्न करते हैं। यह परम्परा हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध आदि भारत से उपजे सभी धर्मों में समान रूप से पायी जाती है। भारतीय परम्परा में शिक्षा दान का कार्य त्यागी लोगों ने किया। जब तक ऐसा रहा तब तक भारत का कल्याण हुआ।[1]

'परम्परा' का शाब्दिक अर्थ है - 'बिना व्यवधान के शृंखला रूप में जारी रहना'। परम्परा-प्रणाली में किसी विषय या उपविषय का ज्ञान बिना किसी परिवर्तन के एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ियों में संचारित होता रहता है। उदाहरणार्थ, भागवत पुराण में वेदों का वर्गीकरण और परम्परा द्वारा इसके हस्तान्तरण का वर्णन है। यहां ज्ञान के विषय आध्यात्मिक, कलात्मक (संगीत, नृत्य), या शैक्षणिक हो सकते हैं।

शब्द-साधन

[संपादित करें]

गुरु-शिष्य का अर्थ है "गुरु से शिष्य का उत्तराधिकार"।

परम्परा (संस्कृत: परंपरा, परम्परा) का शाब्दिक अर्थ है एक निर्बाध पंक्ति या श्रृंखला, क्रम, उत्तराधिकार, निरंतरता, मध्यस्थता, परंपरा। [2] शिक्षा के पारंपरिक आवासीय रूप में, शिष्य अपने गुरु के साथ परिवार के सदस्य के रूप में रहता है और एक सच्चे शिक्षार्थी के रूप में शिक्षा प्राप्त करता है।[3]

यह भी देखें: हिंदू दर्शन, बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन और सिख धर्म दर्शन

उपनिषदों की प्रारंभिक मौखिक परंपराओं में, गुरु-शिष्य संबंध हिंदू धर्म के एक मूलभूत घटक के रूप में विकसित हुआ था। "उपनिषद" शब्द की व्युत्पत्ति हुई है संस्कृत शब्द "उप" (नजदीक), "नी" (नीचे) और "सद" (बैठना) - तो इसका अर्थ है निर्देश प्राप्त करने के लिए आध्यात्मिक शिक्षक के "पास बैठना"। बीच के रिश्ते महाभारत में कृष्ण और अर्जुन और रामायण में राम और हनुमान के बीच भक्ति के उदाहरण हैं। में उपनिषद, गुरु और शिष्य विभिन्न प्रकार की सेटिंग्स में दिखाई देते हैं (उदाहरण के लिए एक पति अमरता के बारे में सवालों का जवाब दे रहा है; एक किशोर लड़के को यम, हिंदू धर्म के भगवान द्वारा सिखाया जा रहा है) l

गुरुओं की उपाधि

[संपादित करें]

परम्परा में केवल गुरु के प्रति ही श्रद्धा नहीं रखी जाती बल्कि उनके पूर्व के तीन गुरुजनों के प्रति भी श्रद्धा रखी जाती है। गुरुओं की संज्ञाएं इस प्रकार हैं-

  • गुरु - वर्तमान गुरु
  • परमगुरु - वर्तमान गुरु के गुरु
  • परपरगुरु - परमगुरु के गुरु
  • परमेष्टिगुरु - परपरगुरु के गुरु

परम्परा का महत्त्व

[संपादित करें]

यास्क ने स्वयं परम्परा की प्रशंसा की है -

अयं मन्त्रार्थचिन्ताभ्यूहोऽपि श्रुतितोऽपि तर्कतः ॥[4]

अर्थात् मन्त्रार्थ का विचार परम्परागत अर्थ के श्रवण अथवा तर्क से निरूपित होता है। क्योंकि -

‘न तु पृथक्त्वेन मन्त्रा निर्वक्तव्याः प्रकरणश एव निर्वक्तव्याः।'

मन्त्रों की व्याख्या पृथक्त्वया हो नहीं सकती, अपि तु प्रकरण के अनुसार ही हो सकती है।

‘न ह्येषु प्रत्यक्षमस्ति अनृषेरतपसो वा ॥'

वेदों का अर्थ किसके द्वारा सम्भव है? इस विषय पर यास्क का कथन है कि - मानव न तो ऋषि होते हैं, न तपस्वी तो मन्त्रार्थ का साक्षात्कार कर नहीं सकते। 

गुरु-शिष्य परम्परा आध्यात्मिक प्रज्ञा का नई पीढ़ियों तक पहुंचाने का सोपान। भारतीय संस्कृति में गुरु-शिष्य परम्परा'के अन्तर्गत गुरु (शिक्षक) अपने शिष्य को शिक्षा देता है या कोई विद्या सिखाता है। बाद में वही शिष्य गुरु के रूप में दूसरों को शिक्षा देता है। यही क्रम चलता जाता है। यह परम्परा सनातन धर्म की सभी धाराओं में मिलती है। गुरु-शिष्य की यह परम्परा ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में हो सकती है, जैसे- अध्यात्म, संगीत, कला, वेदाध्ययन, वास्तु आदि। भारतीय संस्कृति में गुरु का बहुत महत्व है। कहीं गुरु को 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' कहा गया है तो कहीं 'गोविन्द'। 'सिख' शब्द संस्कृत के 'शिष्य' से व्युत्पन्न है।

'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' शब्द का अर्थ है प्रकाश ज्ञान। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है, वह गुरु है। आश्रमों में गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता रहा है। भारतीय संस्कृति में गुरु को अत्यधिक सम्मानित स्थान प्राप्त है। भारतीय इतिहास में गुरु की भूमिका समाज को सुधार की ओर ले जाने वाले मार्गदर्शक के रूप में होने के साथ क्रान्ति को दिशा दिखाने वाली भी रही है। भारतीय संस्कृति में गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है.

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वर: ।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः॥

प्राचीन काल में गुरु और शिष्य के संबंधों का आधार था गुरु का ज्ञान, मौलिकता और नैतिक बल, उनका शिष्यों के प्रति स्नेह भाव, तथा ज्ञान बांटने का निःस्वार्थ भाव. शिक्षक में होती थी, गुरु के प्रति पूर्ण श्रद्धा, गुरु की क्षमता में पूर्ण विश्वास तथा गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण एवं आज्ञाकारिता. अनुशासन शिष्य का सबसे महत्वपूर्ण गुण माना गया है.

आचार्य चाणक्य ने एक आदर्श विद्यार्थी के गुण इस प्रकार बताये हैं –

काकचेष्टा बको ध्यानं श्वाननिद्रा  तथैव च ।
अल्पहारी गृहत्यागी विद्यार्थी पञ्चलक्षणम् ॥

गुरु और शिष्य के बीच केवल शाब्दिक ज्ञान का ही आदान प्रदान नहीं होता था बल्कि गुरु अपने शिष्य के संरक्षक के रूप में भी कार्य करता था। उसका उद्द्येश्य रहता था कि गुरु उसका कभी अहित सोच भी नहीं सकते. यही विश्वास गुरु के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा और समर्पण का कारण रहा है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु-शिष्य परम्परा को ‘परम्पराप्राप्तम योग’ बताया है। गुरु-शिष्य परम्परा का आधार सांसारिक ज्ञान से शुरू होता है,परन्तु इसका चरमोत्कर्ष आध्यात्मिक शाश्वत आनन्द की प्राप्ति है,जिसे ईश्वर-प्राप्ति व मोक्ष प्राप्ति भी कहा जाता है। बड़े भाग्य से प्राप्त मानव जीवन का यही अंतिम व सर्वोच्च लक्ष्य होना चाहिए।

सन्दर्भ

[संपादित करें]
  1. गुरु-शिष्य परंपरा की महत्ता
  2. "Open Library", Wikipedia (अंग्रेज़ी में), 2024-05-15, अभिगमन तिथि 2024-06-06
  3. "A. C. Bhaktivedanta Swami Prabhupada", Wikipedia (अंग्रेज़ी में), 2024-06-04, अभिगमन तिथि 2024-06-06
  4. (निघण्टु १३॥१२)

इन्हें भी देखें

[संपादित करें]

बाहरी कड़ियाँ

[संपादित करें]